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स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका
देवमानव निकायसत्तमै - रेजिषे परिवृतो वृतो बुधैः ।
तारकापरिवृतोऽतिपुष्कलो
व्योमनीव शशलाञ्छनोऽमलः ॥ २ ॥
सामान्यार्थ - हे धर्म जिन ! देव और मनुष्योंके उत्तम समूहों से परिवेष्टित तथा गणधरादि विद्वानोंसे घिरे हुए आप उसी प्रकार सुशोभित हुए हैं जिस प्रकार आकाश में निर्मल पूर्ण चन्द्रमा ताराओंसे परिवेष्टित होकर शोभित होता है ।
विशेषार्थ - चार घातिया कर्मोंका क्षय हो जानेपर श्री धर्म जिन समवसरण सभाके मध्य विराजमान हैं । समवसरणमें देव और मनुष्योंके समूहमें जो श्रेष्ठतम ( भव्य जीव) हैं वे बैठे हुए हैं तथा गणधरादि विशिष्ट विद्वान् भी बैठे हुए हैं । इन सबके द्वारा चारों ओरसे वेष्टित ( घिरे हुए) श्री धर्म जिन उसी प्रकार सुशोभित हो रहे हैं जिस प्रकार आकाश में घनपटलादि आवरण रहित पूर्ण चन्द्रमा ताराओं द्वारा चारों ओरसे वेष्टित होकर शोभित होता हैं । चन्द्रमाका एक नाम शशलाञ्छन है । चन्द्रमामें शश (खरगोश) जैसा लाञ्छन (चिह्न) दिखता है, इसलिए उसको शशलाञ्छन कहते हैं । यदि चन्द्रमा घनपटलसे आच्छादित हो अथवा अपूर्ण हो तो वह शोभाको प्राप्त नहीं होता है । अतः निर्मल और पूर्ण चन्द्रमा ही ताराओंसे परिवेष्टित होकर शोभित होता है ।
श्री धर्म जिन चार घातिया कर्मोंका नाश करके पूर्ण निर्मल हो गये हैं । सर्वज्ञ, वीतराग और हितोपदेशी होनेसे पूर्णताको प्राप्त । ऐसे श्री धर्म जिन समवसरण सभामें श्रेष्ठतम देव और मनुष्योंसे तथा गणधरादि विशिष्ट विद्वानोंसे परिवेष्ठित होकर चन्द्रमासे भी अनन्तगुणी शोभाको प्राप्त होते हैं ।
प्रातिहार्यविभवैः परिष्कृतो
देहतोऽपि विरतो भवानभूत् ।
मोक्षमार्गमशिषन्नरामरान्
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नापि शासनफलैषणातुरः ॥ ३ ॥
सामान्यार्थ - हे धर्म जिन ! आप प्रातिहार्यों और अन्य विभवोंसे विभूषित होते हुए भी न केवल उनसे किन्तु शरीरसे भी विरक्त रहे हैं । आपने मनुष्यों
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