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श्रो धर्म जिन स्तवन
११७ तथा देवोंको मोक्षमार्गका उपदेश दिया। परन्तु आप उपदेशके फल की इच्छासे आतुर नहीं हुए।
विशेषार्थ-समवसरण सभामें विराजमान श्री धर्म जिन छत्र, चमर, सिंहासन, भामण्डल, अशोक वृक्ष, सुरपुष्पवृष्टि, देवदुन्दुभि और दिव्यध्वनि इन आठ प्रातिहार्यों तथा समवसरणादि विभूतियोंसे सुशोभित होते हुए भी वीतराग होनेसे इन सबमें रागरहित या ममत्व रहित थे। इतना ही नहीं वे शरीरसे भी विरक्त थे । जब शरीरमें ही उनका अनुराग नहीं था तब वे अन्य वस्तुओंमें अनुरक्त कैसे हो सकते थे। अर्थात् श्री धर्म जिन पूर्ण वीतरागी थे। फिर भी तीर्थंकर प्रकृतिरूप पुण्य कर्मके उदयसे उन्होंने इच्छाके बिना ही भव्य जीवोंके नियोगसे मनुष्यों और देवोंको मोक्षमार्गका उपदेश दिया था। वे कभी भी उपदेश देनेके फलकी इच्छासे आतुर नहीं हुए। जब उनको उपदेश देनेकी इच्छा ही नहीं थी तब उन्हें उपदेशके फलकी इच्छा कैसे हो सकती थी। जो व्यक्ति किसी इच्छासे प्रेरित होकर उपदेश देता है वह उपदेशके फलको प्राप्त करनेको इच्छासे सदा व्यग्र रहता है। किन्तु वीतराग होनेसे श्री धर्म जिनने कभी भी यह इच्छा नहीं की कि मेरे उपदेशका फल उपदिष्ट जीवोंकी मुझमें भक्ति या उनकी कार्यसिद्धिके रूप में प्रकट हो । जो उपदेशके फलके लिए व्यग्र रहते हैं वे क्षद्र संसारी जीव होते हैं। अतः श्री धर्म जिनकी उक्त परिणति उनकी उत्कृष्ट वीतरागताकी द्योतक है। कायवाक्यमनसां प्रवृत्तयो
नाभवंस्तव मुनेश्चिकीर्षया । नासमीक्ष्य भवतः प्रवृत्तयो
धीर तावकमचिन्त्यमोहितम् ॥ ४ ॥ सामान्यार्थ--हे धीर! प्रत्यक्षज्ञानी आपके काय, वचन और मनकी प्रवृत्तियाँ कुछ करनेकी इच्छासे नहीं हुई। तथा यथार्थ वस्तु स्वरूपको न जानकर भी आपकी प्रवृत्तियाँ नहीं हुई । इस प्रकार आपका चरित्र अचिन्त्य है ।
विशेषार्थ-यहाँ इस बातपर विचार किया गया है कि जब तीर्थंकरको न उपदेश देनेकी इच्छा होती है और न उपदेशके फलकी इच्छा होती है तो उनकी विहार, दिव्यध्वनि आदि प्रवृत्तियाँ कैसे होती हैं। विहार करना यह कायकी प्रवृत्ति है, दिव्यध्वनि द्वारा हितोपदेश देना यह वचनकी प्रवृत्ति है और वस्तु स्वरूपका चिन्तन करना यह मनकी प्रवृत्ति है । भगवान्की ये सब प्रवृत्तियाँ
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