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श्री अनन्त जिन स्तवन
११३ सामान्यार्थ-हे प्रभो ! जो आपमें अनुराग रखता है वह लक्ष्मीके सौभाग्यको प्राप्त करता है और जो आपमें द्वेष रखता है वह प्रत्ययको तरह नष्ट हो जाता है । किन्तु आप दोनोंमें अत्यन्त उदासीन रहते हैं । आपका यह चरित्र बड़ा ही विचित्र है।
विशेषार्थ-जो पुरुष अनन्तनाथ भगवान्का अनुरागी है, भक्त है, वह भक्तिके प्रसादसे धन-सम्पत्ति आदि लौकिक और अनन्तज्ञानादि अलौकिक लक्ष्मीका स्वामी होता है । भगवान्का भक्त पुरुष साक्षात् लौकिक लक्ष्मीको प्राप्त करता है और परम्परया अलौकिक लक्ष्मीको प्राप्त करता है। अपनी भक्तिसे प्रसन्न होकर भगवान् भक्तको कुछ देते नहीं है, किन्तु वह स्वयं ही पुण्यबन्धके द्वारा भक्तिके फलको प्राप्त करता है । इसी प्रकार जो व्यक्ति भगवान्में . द्वेष रखता है, उनकी निन्दा करता है, वह प्रत्ययको तरह नष्ट होकर चतुर्गतियोंमें भ्रमण करता हुआ अनेक दुःखोंको भोगता रहता है । यहाँ प्रत्यय शब्दका अर्थ समझना आवश्यक है। व्याकरणशास्त्रमें क्विप् आदि अनेक प्रत्यय होते हैं। सुकृत् शब्दको सिद्ध करनेके लिए क्विप् प्रत्ययका संयोग होने पर भी वह क्विप् प्रत्यय उस शब्दके साथ रहता नहीं है, किन्तु उसका लोप हो जाता है। सु उपसर्गपूर्वक कृ धातुसे क्विप् प्रत्यय होता है और उसका पूर्ण लोप हो जाता है । इसके बाद तुक् प्रत्यय होता है तब सुकृत् शब्द बनता है । इसीप्रकार क्विन्, विच आदि कुछ और भी ऐसे प्रत्यय हैं जिनका सर्वथा लोप हो जाता है।
प्रत्ययका अर्थ ज्ञान भी होता है। अतः जिस प्रकार इन्द्रियजन्य ज्ञान क्षणिक होनेके कारण नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार भगवान में द्वेष रखनेवाला पुरुष क्विप् आदि प्रत्ययकी तरह अथवा इन्द्रियजन्य क्षणिक ज्ञानकी तरह नाशको प्राप्त होता है। भगवान अपनी निन्दासे अप्रसन्न होकर द्वेषी पुरुषको दुःख नहीं देते हैं, किन्तु भगवान्का निन्दक पुरुष पापबन्धके द्वारा स्वयं अपने कर्मोंके फलको प्राप्त करता है । भगवान तो वीतराग होने के कारण प्रशंसक और निन्दक, अनुरागी और द्वेषी दोनोंमें ही अत्यन्त उदासीन रहते हैं । उन्हें न प्रशंसासे कुछ प्रयोजन है और न निन्दासे । श्री अनन्त जिनका यह चरित्र अत्यन्त आश्चर्यजनक है । ऐसा चरित्र संसारके अन्य देवोंमें नहीं पाया जाता है । अन्य देव तो अपनी भक्तिसे प्रसन्न होकर भक्तको इष्ट फल देते हैं और अपनी निन्दासे अप्रसन्न होकर निन्दकको अनिष्ट फल देते हैं । प्रशंसक और निन्दकमें उदासीन रहना सरल नहीं है। दोनोंमें उदासीन वही रह सकता है जो वीतराग हो । श्री अनन्त जिन ऐसे ही वीतराग देव हैं । इसीलिए उनका चरित्र बड़ा विचित्र है।
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