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स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका
असङ्गघर्मार्कगभस्तितेजसा परं ततो निर्वृतिधाम तावकम् ॥ ३ ॥
सामान्यार्थ - हे आर्य ! जिसमें परिश्रमरूप जल भरा है और भयरूप तरंगों की मालायें उठती हैं ऐसी अपनी तृष्णा नदीको आपने अपरिग्रह रूप ग्रीष्मकालीन सूर्य की किरणोंके तेजसे सुखा दिया है । इसलिए आपका निर्वृति तेज उत्कृष्ट है ।
विशेषार्थ - तृष्णा नदीके समान है । तृष्णा भोगकांक्षाको कहते हैं । संसारके प्राणियों की तृष्णा इतनी तीव्र होती है कि संसारके समस्त वैभवों की प्राप्ति हो जानेपर भी उसकी पूर्ति नहीं होती है । तृष्णा रूप गड्ढा इतना विशाल है कि उसमें समस्त विश्व अणुके समान प्रतीत होता है । तृष्णारूप नदीमें परिश्रमरूप जल भरा रहता है और भयरूप लहरें उठा करती हैं । इसका तात्पर्य यह है कि यह प्राणी भोगाकांक्षाकी पूर्ति के लिए निरन्तर कठोर परिश्रम करके भोगोंकी सामग्रीको एकत्रित करता है । फिर भी उसे सदा यह भय बना रहता है कि इतने परिश्रम से प्राप्त की गई भोगसामग्री नष्ट न हो जाय अथवा विषय सेवनमें कोई बाधा उपस्थित न हो जाय । ऐसी तृष्णाको श्री अनन्त जिनने अपरिग्रहके द्वारा नष्ट कर दिया है । तृष्णाको जीतनेका अमोघ उपाय परिग्रहका त्याग है । परिग्रहके सद्भावमें तृष्णा उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है । श्री अनन्त जिनने अन्तरंग और बहिरंग परिग्रहों का सर्वथा त्याग कर दिया है । इसलिए वे असंग (निर्ग्रन्थ) हैं |
जिस प्रकार ग्रीष्मकालीन सूर्यकी किरणोंके प्रचण्ड तेजसे नदीका पानी सूख जाता है उसी प्रकार श्री अनन्त जिनने अपरिग्रहरूप ग्रीष्मकालीन सूर्यकी किरणों के प्रचण्ड प्रतापसे अपनी तृष्णा नदीके पानीको सुखा दिया है । निरन्तर निःसङ्गत्वका अभ्यास, विवेकका उपयोग, परम ध्यान आदि अपरिग्रहरूप सूर्यकी किरणें हैं और इन किरणोंके तेजसे तृष्णा नदीका पानी सूख जाता है | अतः श्री अनन्त जिनका निर्वृतिधाम ( परिग्रह त्यागरूप तेज) उत्कृष्ट है, जिसके समक्ष तृष्णाका अस्तित्व समाप्त हो जाता है ।
सुहृत् त्वयि श्री सुभगत्वमश्नुते
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द्विषंस्त्वयि प्रत्ययवत् प्रलीयते ।
भवानुदासीनतमस्तयोरपि
प्रभो परं चित्रमिदं तवेहितम् ॥ ४ ॥
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