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श्री अनन्त जिन स्तवन
कषायनाम्नां द्विषतां प्रमाथिना
मशेषयन्नाम भवानशेषवित् । विशोषणं मन्मथदुर्मदामयं
___समाधिभैषज्यगुणैर्व्यलीनयत् ॥ २॥ सामान्यार्थ--हे अनन्त जिन ! दुाख देनेवाले कषाय नामक शत्रुओंके नामको नष्ट करते हए आप सर्वज्ञ हए हैं। आपने संतापदायक कामदेवके दुरभिमानरूप आमय ( रोग ) को ध्यानरूप औषधिके गुणोंके द्वारा विनष्ट किया है ।
विशेषार्थ-यहाँ श्री अनन्त जिनके विषयमें दो महत्त्वपूर्ण बातें बतलायी गयी हैं । (१) उन्होंने कषाय नामक शत्रुओंको जीता है और (२) कामदेवके गर्वको चूर-चूर किया है। क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषायें हैं। इनमें भी प्रत्येकके अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलनके भेदसे चारचार भेद होते हैं । इस प्रकार कषायके सोलह भेद हो जाते हैं । इसके अतिरिक्त हास्य, रति, अरति आदि नौ नोकषाय भी हैं। अतः कषायके कुल भेद पच्चीस होते हैं । कषाय दुःखदायक होनेसे जीवका शत्रु है। क्योंकि वह आत्माको कर्मबन्धनमें बाँधती है। श्री अनन्त जिनने ऐसी कषायोंको सम्यग्दर्शनादिके द्वारा समूल नष्ट कर दिया है। कषायोंके समूल नाश हो जानेसे आत्मामें उनका नाम भी शेष नहीं रहा है। इस प्रकार कषायरूप शत्रुओंके नाश हो जानेपर श्री अनन्त जिन सर्वज्ञ हो गये।
श्री अनन्त जिनने मन्मथ (काम) को भी जीत लिया है। सामान्यरूपसे भोगाभिलाषाको काम कहते हैं और विशेष रूपसे स्त्री-पुरुषकी रतिक्रियाको काम कहते हैं । कामको देव भी कहा गया है । जैसे ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि अन्य कई शक्तिशाली देव हैं वैसे काम भी एक शक्तिशाली देव माना गया है। कामदेवको इस बातका बड़ा भारी घमण्ड रहता है कि संसारका प्रत्येक प्राणी मेरे वशमें है। काम प्राणियोंके हृदयमें सदा संताप उत्पन्न करता रहता है। उसपर विजय प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है। काम एक भयंकर रोग है । इस रोगकी शान्तिके ‘लिए उत्तम औषधिकी आवश्यकता होती है। कामरोगको शान्ति ध्यानरूप
औषधिके द्वारा होती है। श्री अनन्त जिनने ध्यानरूप औषधिके द्वारा कामरूप रोगको नष्ट कर दिया है । इस प्रकार श्री अनन्त जिन निष्कषाय, निष्काम और सर्वज्ञ हुए हैं।
परिश्रमाम्बर्भयवीचिमालिनी
त्वया स्वतृष्णासरिदार्य शोषिता ।
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