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(१३ ) श्री विमल जिन स्तवन य एव नित्यक्षणिकादयो नया
मिथोऽनपेक्षाः स्वपरप्रणाशिनः । त एव तत्त्वं विमलस्य ते मुनेः
परस्परेक्षा स्वपरोपकारिणः ॥ १ ॥ सामान्यार्थ-हे विमल जिन ! जो नित्य, क्षणिक आदि नय परस्परमें निरपेक्ष होकर स्व और परका नाश करनेवाले हैं, वे ही नय परस्पर सापेक्ष होकर स्व और परका उपकार करने वाले हैं तथा वे ही नय प्रत्यक्षज्ञानी आपके मतमें तत्त्व (सम्यक्नय) हैं।
विशेषार्थ-ज्ञाता अथवा वक्ताके अभिप्रायको नय कहते हैं । यहाँ नित्य, क्षणिक आदिको जो नय कहा गया है वह उपचारसे कहा गया है । अर्थात् नित्य पदार्थ अथवा क्षणिक पदार्थ नयका विषय होता है। और नयका विषय होनेसे उसे उपचारसे नय कह सकते हैं । यहाँ विषयमें विषयी (ज्ञान) का उपचार करके नित्य, क्षणिक आदिको नय कहा गया है। क्योंकि नय ज्ञानरूप होता है और नित्य, क्षणिक आदि पदार्थ अज्ञानरूप हैं। जैनदर्शनके अनुसार परस्परमें निरपेक्ष नय मिथ्या होते हैं और परस्पर सापेक्ष नय सम्यक् होते हैं।
सांख्य कहता है कि पदार्थ सर्वथा नित्य है। बौद्ध कहता है कि पदार्थ सर्वथा क्षणिक है । यहाँ नित्य पदार्थको विषय करनेवाले ज्ञानको नित्यनय कह सकते हैं और क्षणिक पदार्थको विषय करनेवाला ज्ञान क्षणिकनय है । यहाँ विचारणीय यह है कि क्या पदार्थ सर्वथा नित्य है अथवा सर्वथा क्षणिक है । यथार्थ में पदार्थ न तो सर्वथा नित्य । है और न सर्वथा क्षणिक है, किन्तु कथंचित् नित्य है और कथंचित् क्षणिक है । द्रव्यार्थिक नयकी दृष्टिसे जीवादि वस्तुत्व नित्य है और पर्यायाथिक नयकी दृष्टिसे क्षणिक है। नित्यत्व और क्षणिकत्व इन दो धर्मोके परस्पर सापेक्ष होनेपर ही उनका अस्तित्व सम्भव है । अन्यथा एकके अभावमें दूसरेका अस्तित्व स्वतः समाप्त हो जाता है। अतः परस्परमें निरपेक्ष नय स्वपरप्रणाशी हैं।
१. नयो ज्ञातुरभिप्रायः । -लघीयस्त्रय कारिका ५२
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