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स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदोपिका मिट्टीकी अनन्तर पूर्वक्षणवर्ती पर्याय घटका उपादान कारण है और कुम्भकार, दण्ड, चक्रादि उसके निमित्त कारण हैं। जब इन दोनों कारणोंकी पूर्णता होगी तभी घटकी उत्पत्ति होगी। दोनों कारणोंकी अपूर्णताको स्थितिमें घटादि कार्यकी उत्पत्ति कभी नहीं हो सकती है । उपादान तथा निमित्त इन दोनों कारणोंकी अपनी-अपनी समग्रता होनेपर ही कार्य होता है । दोनोंकी समग्रताके बिना कार्यको उत्पत्ति सम्भव नहीं है । उपादान और निमित्त इन दोनोंकी अपनी-अपनी समग्रताका काल एक ही होता है। इसे ही दोनोंकी काल प्रत्यासत्ति कहते हैं । इस प्रकार उन दोनोंकी समग्रताके समान कालमें कार्य होता है। यही घटादि अथवा जोवादि द्रव्यका स्वभाव (अर्थक्रियाकारित्व) है । जल धारण, आहरण आदि घट द्रव्यका अर्थक्रियाकारित्व है। घटादि द्रव्यका यह स्वभाव अथवा अर्थक्रियाकारित्व उक्त विधिसे ही प्रकट होता है, अन्य विधिसे नहीं। क्योंकि अन्य विधिसे कार्यकी उत्पत्ति सम्भव ही नहीं है ।
उक्त विधि घटादि कार्योंकी उत्पत्तिमें ही चरितार्थ नहीं होती है, किन्तु मोक्षरूप कार्यकी उत्पत्तिमें भी चरितार्थ होती है । मोक्षरूप कार्यकी उत्पत्ति उपादान और निमित्त दोनों कारणोंकी पूर्णता होनेपर ही होती है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रकी पूर्णतासे युक्त भव्य जीवकी आत्मा मोक्षका उपादान कारण है तथा ज्ञानावरणादि अष्ट कर्मोंका अभाव निमित्त कारण है। इन दोनों कारणोंकी पूर्णताके होनेपर ही जीव द्रव्यमें मोक्ष पर्यायरूप कार्यको उत्पत्ति होती है, अन्यथा नहीं । यद्यपि कर्मोके अभावरूप निमित्तके बिना जीवमें मोक्ष पर्यायरूप कार्य नहीं होता है, फिर भी कर्मोंका अभाव जीवकी मोक्ष परिणतिरूप कार्यका कर्तृकारक या करणकारक न होकर केवल निमित्तमात्रका सूचक है। यथार्थमें जीवकी स्वभाव परिणति ही उसकी मोक्षरूप परिणतिका उपादान कारण है । यही जैनदर्शन सम्मत कार्यकारणकी व्यवस्था है ।
हे वासुपूज्य जिन ! यतः आपने कार्योंमें द्रव्यगत स्वभाव (कार्यकारणभाव) की युक्तिसंगत व्यवस्था बतलायी है तथा आप अनेक ऋद्धियोंके धारक ऋषि हैं, इसलिए गणधरादि महान् विद्वज्जन मन-वचन-कायसे आपकी वन्दना करते हैं ।
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