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श्री विमल जिन स्तवन
१०७ नहीं । विशेषके बिना सामान्य और सामान्यके बिना विशेष अपूर्ण है । एक ही वस्तुको सामान्य और विशेषरूप होनेमें कोई विरोध नहीं है । एक ही वस्तुमें सामान्य और विशेष ये दोनों धर्म विशेषण-विशेष्यभावसे रहते हैं। सामान्य विशेषण है और विशेष विशेष्य है। मनुष्यत्व विशेषण है और मनुष्य व्यक्ति विशेष्य है । इन दोनोंके मेलसे ही वस्तुमें पूर्णता आती है। इसी बातको निम्नलिखित उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया गया है ।।
प्रमाण बुद्धिलक्षण (ज्ञानरूप) होता है और बुद्धिलक्षण प्रमाण स्वपरप्रकाशक होकर ही पूर्णताको प्राप्त करता है। प्रमाणमें स्वप्रकाशकत्व और परप्रकाशकत्व ये दो धर्म पाये जाते हैं। ये दोनों धर्म परस्परमें सापेक्ष होते हैं, निरपेक्ष नहीं। स्वप्रकाशकत्वके बिना परप्रकाशकत्व और परप्रकाशकत्वके बिना स्वप्रकाशकत्व नहीं बनता है। यहाँ स्तुतिकार आचार्य समन्तभद्रने प्रमाणका लक्षण भी बतला दिया है । प्रमाण वह ज्ञान (सम्यग्ज्ञान) है जो स्व और परका अवभासक (जाननेवाला) होता है। प्रमाण ज्ञानरूप होता है, अज्ञानरूप (सन्निकर्षादिरूप) नहीं। प्रमाणरूप ज्ञान स्वका तथा परका प्रकाशक होता है । मोमांसक परोक्ष ज्ञानवादो हैं। वे कहते हैं कि ज्ञान पर (घटादि) का प्रकाशक तो है किन्तु स्वका प्रकाशक नहीं है । अर्थात् ज्ञान घटका प्रत्यक्ष तो करता है किन्तु वह अपना प्रत्यक्ष नहीं कर सकता है। यहां स्वपरावभासक पदके द्वारा परोक्षज्ञानवादी मीमांसकोंका खण्डन हो जाता है । ज्ञान केवल परका ही अवभासक नहीं है किन्तु स्वका भी अवभासक है । जो ज्ञान स्वपरावभासक होता है वह सम्यग्ज्ञान ही है, यह स्वतः सिद्ध हो जाता है । अतः स्वपरावभासक सम्यग्ज्ञान प्रमाण होता है। उपर्युक्त कथनका निष्कर्ष यह है कि जिस प्रकार ज्ञानस्वपरप्रकाशक होकर ही पूर्णताको प्राप्त करता है उसी प्रकार वस्तु सामान्यविशेषात्मक होकर ही पूर्णताको प्राप्त होती है।
विशेष्यवाच्यस्य विशेषणं वचो
यतो विशेष्यं विनियम्यते च यत् । तयोश्च सामान्यमतिप्रसज्यते
विवक्षितात् स्यादिति तेऽन्यवर्जनम् ॥ ४ ॥
सामान्यार्थ-हे विमल जिन ! वाच्यभूत विशेष्यका वह वचन जिससे विशेष्यको नियमित किया जाता है, विशेषण कहलाता है और जिसे नियमित किया जाता है वह विशेष्य होता है। आपके मतमें विशेषण और विशेष्यमें सामान्य
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