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स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका यहाँ यह विचारणीय है कि जिस प्रकार सामान्य, विशेष आदि धर्मोंमें मुख्य और गौण की व्यवस्था होती है, क्या उसी प्रकार नयोंमें भी मुख्य और गौणकी व्यवस्था होती है । इस विषयमें यह कहा जा सकता है कि वक्ता जिस नयकी अपेक्षासे कथन करता है उस नयको मुख्य अथवा विवक्षित नय और अन्य नयोंको गौण अथवा अविवक्षित नय समझना चाहिए । ___ संस्कृत टीकाकारने 'सामान्य विशेषमातृका नयाः' इस वाक्यका अर्थ दो प्रकारसे किया है—(१) सामान्य और विशेष हैं माता जिनकी अर्थात् नय सामान्य और विशेषसे उत्पन्न होते हैं। (२) नय सामान्य और विशेषको जानने वाले होते हैं । यहाँ प्रथम अर्थ ठीक प्रतीत नहीं हो रहा है। क्योंकि जैनदर्शन के अनुसार ज्ञान अर्थसे उन्पन्न नहीं होता है। बौद्धदर्शन ऐसा मानता है कि ज्ञान अर्थसे उत्पन्न होता है और तदाकार होता है ।
परस्परेक्षान्वयभेदलितः
प्रसिद्ध सामान्यविशेषयोस्तव । समग्रतास्ति स्वपरावभासकं
यथा प्रमाणं भुवि बुद्धिलक्षणम् ॥ ३ ॥
सामान्यार्थ-हे विमल जिन ! परस्परमें एक दूसरेकी अपेक्षा रखनेवाले अन्वय (सामान्य) और भेद (विशेष) के ज्ञानसे सिद्ध होनेवाले सामान्य और विशेषकी आपके मतमें उसी प्रकार पूर्णता है जिस प्रकार भूतल पर बुद्धिलक्षण प्रमाणकी स्व-पर प्रकाशकके रूपमें पूर्णता है।
विशेषार्थ--प्रत्येक पदार्थ सामान्य और विशेषरूप होता है । मनुष्य सामा-- न्य और विशेष दोनों रूप है। जितने मनुष्य हैं उन सबमें मनुष्यत्व पाया जाता है, यही सामान्य है । और प्रत्येक मनुष्यमें अपनी कुछ विशेषतायें होती हैं जिनके कारण वह अन्य मनुष्योंसे पृथक् होता है। इसीका नाम विशेष है। सामान्य और विशेषकी सिद्धि अभेद ज्ञान (अन्वय ज्ञान) और भेद ज्ञानसे होती है। सब मनुष्योंमें 'यह मनुष्य है', 'यह मनुष्य है' ऐसा जो अभेद ज्ञान होता है उससे सामान्यकी सिद्धि होती है। देवदत्त यज्ञदत्तसे भिन्न है, राम मोहनसे भिन्न है, मनुष्योंमें ऐसा जो भेद ज्ञान होता है उससे विशेषकी सिद्धि होती है । अभेद ज्ञान और भेद ज्ञान ये दोनों परस्परमें सापेक्ष होकर ही सामान्य और विशेषकी सिद्धि करते हैं, निरपेक्ष होकर नहीं । इसी प्रकार सामान्य और विशेष ये दोनों परस्परमें सापेक्ष होकर ही वस्तुमें पूर्णताको प्राप्त करते हैं, निरपेक्ष होकर
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