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श्री वासुपूज्य जिन स्तवन अब इस बातपर विचार करना है कि पुण्य और पापकी उत्पत्ति कैसे होती है । इसे समझनेके लिए अध्यात्मवृत्त शब्दका अर्थ समझना आवश्यक है । इस श्लोकमें 'अध्यात्मवृत्तस्य' शब्द आया है। कुछ लोग अध्यात्मवृत्त शब्दका अर्थ आत्मलीन पुरुष करते हैं, जो ठीक नहीं है। क्योंकि यहाँ आत्मलीन पुरुषकी कोई बात नहीं है। यहाँ तो सामान्य पुरुषकी बात है। यह बात पशु-पक्षियोंपर भी लागू हो सकती है। क्योंकि वे भी पुण्य और पापका बन्ध करते हैं । यहाँ पुण्य और पापकी उत्पत्तिका प्रकरण है । अध्यात्मवृत्त पुरुष पापकी उत्पत्ति क्यों करेगा । अतः 'अध्यात्मवृत्तस्य' शब्द 'अम्यन्तरमूलहेतोः' का विशेषण है । संस्कृतटीकाकारने अध्यात्मवृत्तका अर्थ किया है--आत्मामें होनेवाले शुभ और अशुभ परिणाम । शुभ और अशुभ परिणाम क्रमशः पुण्य और पापकी उत्पत्तिमें अन्तरंग मूलहेतु अर्थात् उपादान कारण होते हैं । शुभ परिणामोंसे पुण्यकी उत्पत्ति होती है और अशुभ परिणामोंसे पापकी उत्पत्ति होती है । तत्त्वार्थसूत्रमें बतलाया गया है कि शुभ योगसे पुण्य कर्मोंका आस्रव होता है और अशुभ योगसे पाप कर्मोंका आस्रव होता है। __ अब प्रश्न यह है कि पुण्य और पापकी उत्पत्तिमें बाह्य वस्तु भी कारण होती है या नहीं। इसका उत्तर यह है कि पुण्य और पापकी उत्पत्ति में बाह्य वस्तु भो कारण होती है, किन्तु वह मूल कारणका अंगभूत (सहकारी कारण) होती है । आत्मामें होनेवाले शुभ परिणाम पुण्यके उपादान कारण तथा अशुभ परिणाम पापके उपादान कारण होते हैं। तात्पर्य यह है कि पुण्य और पापकी उत्पत्ति में जो बाह्य वस्तु कारण होती है वह अन्तरंग शुभाशुभ परिणामरूप उपादान कारणको सहकारी कारण होती है । इस प्रकार प्रत्येक कार्यको उत्पत्तिमें दोनों कारणों (उपादान और निमित्त) का होना आवश्यक है। केवल एक कारणसे कार्यकी उत्पत्ति नहीं होती है। फिर प्रश्न हो सकता है कि जब ऐसी बात है तब ‘अभ्यन्तरं केवलमप्यलं ते' ऐसा क्यों कहा है। क्या ऐसा कहने में कोई विरोध नहीं है ? इसका समाधान इस प्रकार है
हे भगवन् ! आपके मतमें केवल अभ्यन्तर (उपादान) कारण भी कार्य करने में समर्थ है । आचार्य समन्तभद्रने ऐसा जो कहा है वह सामान्य कथन न होकर विशेष कथन है । इसे समझनेके लिए आगमके आलोकमें नयोंकी दृष्टिसे विचार करना आवश्यक है। जैनागमके अनुसार विशिष्ट पर्यायशक्तिसे युक्त द्रव्यशक्ति अर्थात् उपादान कारण ही कार्यका उत्पादक या कर्ता होता है । उपादान कारण द्वारा उत्पन्न होनेवाले कार्यके समय निमित्त कारण भी उपस्थित
१. शुभः पुण्यस्याशभः पापस्य ।-तत्त्वार्थसूत्र ६/३
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