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स्वयम्भू स्तोत्र-तत्त्वप्रदोपिका
पूजा करने से विशाल पुण्य उत्पन्न होता है । उस पुण्यराशिके समक्ष अल्पतम पाप या हिंसा किसी दोषको उत्पन्न करने में समर्थ नहीं है ।
तात्पर्य यह है कि वह सावद्यलेश प्रचुर पुण्यको दूषित करने में अथवा उसे पापरूप परिणत करनेमें समर्थ नहीं होता है । जैसे कि विषका एक कण समुद्रकी विशाल जलराशिको दूषित नहीं कर सकता है । यदि कोई व्यक्ति समुद्र के अथाह जल में विषका एक कण डाल दे तो उस विष कणसे समुद्रका विशाल जल विषैला ( प्राणघातक) नहीं हो जाता है । इसी प्रकार भगवान् की पूजा करने से उत्पन्न विशाल पुण्यराशि में सावद्यलेश कुछ भी दोष या पाप उत्पन्न नहीं करता है ।
यद् वस्तु बाह्य ं गुणदोषसूतेनिमित्तमभ्यन्तरमूलहेतोः ।
अध्यात्मवृत्तस्य तदङ्गभूत
मभ्यन्तरं केवलमप्यलं ते ॥ ४ ॥
सामान्यार्थ — जो बाह्य वस्तु गुण और दोषकी उत्पत्तिका कारण होती है वह आत्मामें होनेवाले उपादानरूप मूल हेतुका अंगभूत (सहकारी कारण ) है । हे भगवन् ! आपके मतमें केवल अभ्यन्तर कारण ( उपादान करण) भी गुण और दोषकी उत्पत्ति में समर्थ है ।
विशेषार्थ - यहाँ इस बातपर विचार किया गया है कि गुण और दोषकी उत्पत्ति कैसे होती है । सर्वप्रथम यह देखना है कि गुण और दोषका अर्थ क्या है । संस्कृत टीकाकारने गुण का अर्थ पुण्य किया है और दोषका अर्थ पाप किया है, जो प्रकरण के अनुसार ठीक प्रतीत होता है । तृतीय श्लोक में पुण्य और दोष शब्द आये हैं । यहाँ पुण्यके स्थान में गुण शब्दका प्रयोग किया गया है । गुण शब्दसे आत्माका सम्यग्दर्शनादिरूप स्वभावपरिणमन और दोष शब्दसे आत्माका मिथ्यादर्शनादिरूप विभावपरिणमन भी लिया जा सकता है ।
सामान्यरूपसे कारणके दो भेद होते हैं— उपादानकारण और निमित्तकारण | निमित्त कारणको सहकारी कारण भी कहते हैं । अध्यात्मके प्रकरण में उपादान कारणको अन्तरंग कारण और निमित्त कारणको बहिरंग कारण भी कहा जाता है । उपादान कारण मूलहेतु ( प्रधान कारण ) कहलाता है और निमित्त कारण उसका अंगभूत ( गौण कारण ) होता है । अतः किसी भी कार्यकी उत्पत्ति में उपादान कारण मूल कारण होता है और निमित्त कारण उसका अंगभूत ( सहकारी कारण ) होता है ।
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