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स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे
न निन्दया नाथ विवान्तवैरे । तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिनः
पुनाति चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः ॥२॥ सामान्यार्थ-हे नाथ ! रागसे रहित आपमें पूजाके द्वारा कोई प्रयोजन नहीं है और वैरसे रहित आपमें निन्दाके द्वारा भी कोई प्रयोजन नहीं है । तो भी आपके पुण्य गुणोंका स्मरण हमारे चित्तको पापरूप अंजन (मल) से पवित्र करता है । अर्थात् पाप मलको दूर कर देता है ।
विशेषार्थ-रागी मनुष्य अपनी स्तुतिसे प्रसन्न होता है और द्वेषी मनुष्य अपनी निन्दासे अप्रसन्न होता है। किन्तु श्री वासुपूज्य जिन वीतराग और वीतद्वेष हैं । वीतराग होनेके कारण पूजासे उनका कोई प्रयोजन नहीं है । कोई भक्त भगवानकी कितनी हो पूजा करे, स्तुति करे और प्रशंसा करे तो ऐसा करनेसे भगवान् उस भक्तपर प्रसन्न नहीं होते हैं और न पूजकको पूजा करनेका कोई इष्ट फल देते हैं। इसी प्रकार वीतद्वेष होनेके कारण श्री वासुपूज्य जिनका निन्दासे कोई प्रयोजन नहीं है। कोई भगवानकी कितनी ही निन्दा करे, बुराई करे और अपशब्द कहे तो ऐसा करनेसे भगवान् उसपर अप्रसन्न नहीं होते हैं और न निन्दकको निन्दा करनेका कोई अनिष्ट फल देते हैं । वीतराग और वीतद्वेष होनेके कारण वासुपूज्य भगवान् पूजा और निन्दा इन दोनों स्थितियोंमें समान रहते हैं । पूजा करनेवाले का न इष्ट करते हैं और न निन्दा करनेवालेका अनिष्ट करते हैं। ____ यहाँ कोई कह सकता है कि जब भगवान् पूजाका कोई फल नहीं देते हैं तब उनकी पूजा करना व्यर्थ है । यह कथन ठीक नहीं है । हम भगवान की पूजा इसलिए नहीं करते हैं कि पूजासे प्रसन्न होकर भगवान् हमको कुछ फल दें। यथार्थ बात यह है कि भगवान की पूजा या स्तुति करते समय हम भगवान्के अनन्तज्ञानादि पवित्र गुणोंका स्मरण करते हैं और यह गुणस्मरण हमारे चित्त (आत्मस्वरूप) को पापमलोंसे पवित्र करता है । तात्पर्य यह है कि हम भगवान्की पूजा अपने ही हितके लिए करते हैं। भगवान् पूजाका फल नहीं देते हैं किन्तु हमें पूजाका फल स्वतः मिल जाता है । इसी बातको हम इस प्रकार भी कह सकते हैं कि भगवान्की पूजा करनेसे पुण्यबन्ध होता है और उस पुण्यबन्धके द्वारा हमें सुखादि रूप इष्ट फलकी प्राप्ति होती है। इसप्रकार पूजा करनेसे हमें दो प्रकार का लाभ होता है । पहला लाभ तो यह है कि पूजा करनेसे चित्तका पाप कर्मरूफ
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