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स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका
विशेषार्थ-सब पदार्थ सत्रूप ही हैं, असत्रूप ही हैं, नित्यरूप ही हैं, अनित्यरूप ही हैं, सामान्यरूप ही हैं, विशेषरूप ही हैं, द्रव्यरूप ही हैं, पर्याय रूप ही हैं, इत्यादि प्रकारका मिथ्या अभिनिवेश एकान्तदृष्टि कहलाती है। इस एकान्तदृष्टिका प्रतिषेध (निराकरण) न्यायरूप बाणोंके द्वारा ही होता है। न्याय प्रमाण और नयरूप होता है। श्री श्रेयांस जिनने प्रमाण और नयरूप बाणोंके द्वारा सर्वथा एकान्तवादियोंका निराकरण करके उनपर विजय प्राप्त की है। यह श्री श्रेयांस जिनकी परार्थसम्पत्ति है। ____ श्री श्रेयांस जिनने न्यायरूप बाणोंसे केवल एकान्तदृष्टियोंका निराकरण ही नहीं किया है किन्तु शुक्लध्यानके द्वारा मोहरूप शत्रुका नाश करके वे केवलज्ञान रूप विभूति (सम्पत्ति) के सम्राट भी हुए हैं । यहाँ मोहरिपुका अर्थ अज्ञानरूप शत्रु करना चाहिए। अथवा मोहका अर्थ मोहनीय कर्म और रिपुका अर्थ ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय ये तीन कर्म करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि श्री श्रेयांस जिनने चार घातिया कर्मोका नाश करके केवलज्ञानको अथवा अनन्तचतुष्टयको प्राप्त किया है। कैवल्यविभूतिका अर्थ है केवलज्ञानरूप सम्पत्ति अथवा केवलज्ञानके होने पर समवसरणादिरूप सम्पत्ति ।
हे भगवन् ! आप अज्ञानरूप शत्रुका नाश करके अथवा चार घातिया कर्मोंका नाश करके केवलज्ञानरूप सम्पत्तिके साथ ही समवसरणादिरूप सम्पत्तिके भी सम्राट् (चक्रवर्ती राजा) हुए हैं। यह श्री श्रेयांस जिनकी स्वार्थसम्पत्ति है । यतः आप एकान्तदृष्टिके प्रतिषेधक और अनेकान्तदृष्टिके प्रतिपादक हैं, साथ ही स्वार्थसम्पत्ति और परार्थसम्पत्तिके धारक हैं इसलिए मैं आपकी स्तुति कर
श्री जुगलकिशोर जी मुख्तारने अपने सम्पादन में 'एकान्तदष्टिप्रतिषेधसिद्धिः' और 'न्यायेषुभिः' इन दो पदोंके स्थानमें 'एकान्तदृष्टिप्रतिषेधसिद्धिन्यायेषुभिः' ऐसा एक ही पद रक्खा है। उनका मत युक्तिसंगत प्रतीत होता है । क्योंकि इस एक पदका सीधा सम्बन्ध 'मोहरिपु निरस' इस पदके साथ हो जाता है । तात्पर्य यह है कि मोहशत्रुके विनाशके लिए कोई शस्त्र चाहिए और वह शस्त्र है न्यायरूप बाण । अतः आप (श्रेयांस जिन) एकान्तदृष्टि के प्रतिषेधकी सिद्धिरूप न्यायबाणोंसे मोह शत्रुका नाश करके कैवल्यविभूतिके सम्राट् हुए, ऐसा अर्थ करना ठीक प्रतीत होता है । किन्तु जब हम ऐसा कहते हैं कि एकान्तदृष्टिके प्रतिषधकी सिद्धि न्यायरूप बाणोंसे होती है, तब 'मोहरिपु निरस्य' यह पद अलग पड़ जाता है । और यहाँ मोहशत्रुके नाशके हेतुको अलगसे बतलाना पड़ता है । अर्थात् श्रेयांस जिन शुक्लध्यानके द्वारा मोह शत्रुका नाश करके कैवल्यविभूतिके • सम्राट् हुए, ऐसा कहना पड़ता है।
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