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श्री श्रेयांस जिन स्तवन
विशेषार्थ--जब किसी वस्तुके विषयमें कोई विवाद होता है उस समय दो पक्ष होते हैं । एक पक्ष वादी कहलाता है और दूसरा पक्ष प्रतिवादी होता है । पर्वतमें अग्नि है या नहीं, यह विवादका विषय है । वादी कहता है कि वहाँ अग्नि है, क्योंकि वहाँ धूम है। प्रतिवादी पर्वत में अग्निका अस्तित्व स्वीकार नहीं करता है । वह वहाँ धूमका अस्तित्व अवश्य मानता है । यहाँ अग्नि साध्य है और धूम हेतु है । यहाँ प्रतिवादीको समझानेके लिए वादी भोजनशालाका दृष्टान्त देता है । वह कहता है कि जहाँ धूम होता है वहाँ अग्नि अवश्य होती है। जैसे भोजनशालामें जब धूम रहता है तब अग्नि भी अवश्य रहती है । इस दृष्टांत द्वारा प्रतिवादीको पर्वतमें अग्निके होनेकी बात समझमें आजाती है । इस प्रकार दृष्टान्तके माध्यमसे पर्वतमें अग्निरूप साध्यकी सिद्धि भलीभाँति हो जाती है ।
सर्वथैकान्तका अस्तित्व है या नहीं. यह विवाद का विषय है । यहाँ सांख्य, नैयायिक आदि एकान्तवादी कहते हैं कि सर्वथैकान्तका अस्तित्व है। इसके विपरीत जैनदार्शनिक कहते हैं कि सर्वथैकान्तका अस्तित्त्व नहीं है । इस विवादमें यदि कोई ऐसी वस्तु मिल जाय जो दृष्टान्त बनकर सर्वथैकान्तके अस्तित्वको सिद्ध कर दे तो सर्वथैकान्तरूप साध्यकी सिद्धि हो सकती है। किन्तु ऐसी कोई वस्तु दृष्टिगोचर नहीं है जो सर्वथैकान्तकी नियामक हो। अर्थात् जो दृष्टान्त बनकर सर्वथैकान्तको सिद्धि कर सके । तात्पर्य यह है कि सर्वथैकान्तकी सिद्धिके लिए कोई दृष्टान्त ही नहीं मिल रहा है और दृष्टान्तके बिना साध्यकी सिद्धि सम्भव नहीं है।
हे श्रेयांस जिन ! आपकी अनेकान्तदृष्टि साध्य, साधन और दृष्टान्त सबमें अपना प्रभुत्व स्थापित किये हुए है । आपके मतमें वस्तुमात्र अनेकान्तात्मकत्वसे व्याप्त है । जहाँ वस्तुत्व है वहाँ अनेकान्तात्मकत्व भी अवश्य है । अतः साध्य, साधन और दृष्टान्त इन सबमें भी अनेकान्तात्मकत्व विद्यमान है । कोई भी वस्तु अनेकान्तात्मकत्वसे शून्य नहीं है । इसलिए अनेकान्तदर्शन ही श्रेयस्कर है। एकान्तदृष्टिप्रतिषेधसिद्धि
ायेषुभिर्मोहरिपु निरस्य । असि स्म कैवल्यविभूतिसम्राट
ततस्त्वमहन्नसि मे स्तवाहः ॥५॥ (५५) सामान्यार्थ हे अर्हन् ! एकान्तदृष्टिके प्रतिषेधकी सिद्धि न्यायरूप बाणोंसे होती है। तथा आप मोहरूप (अज्ञान रूप) शत्रुका नाश करके केवलज्ञानरूप विभूतिके सम्राट् हुए हैं। इसलिए आप मेरी स्तुतिके योग्य हैं। .
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