________________
श्री श्रेयांस जिन स्तवन
९१
मानने पर उसे सर्वदा वैसा ही मानना पड़ेगा। प्रधानरूप विधि अथवा निषेधका जो नियामक होता है वह नय कहलाता है । स्वरूपादिचतुष्टयकी अपेक्षासे ही विधि होती है और पररूपादिचतुष्टयकी अपेक्षासे ही निषेध होता है । इस प्रकारके नियमकी व्यवस्था नय करता है । नय कभी विधिको मुख्य बनाता है और कभी निषेधको मुख्य बनाता है । विधि और निषेध ये दोनों भिन्न-भिन्न समयोंमें नयके विषय होते हैं, एक साथ नहीं । इस प्रकारके नयके विषयका समर्थन दृष्टान्तसे करना चाहिए ।
इस श्लोक में जो 'दृष्टान्तसमर्थन:' शब्द है उसका संस्कृत टीकाकारने दो प्रकारसे अर्थ किया है— (१) दृष्टान्ते समर्थनं यस्य सः दृष्टान्तसमर्थनः । इसका अर्थ है - घटादि दृष्टान्तमें दूसरोंको समझानेके लिए अस्तित्व या नास्तित्वके स्वरूपका निरूपण करना । (२) दृष्टान्तस्य समर्थनं येनासौ दृष्टान्तसमर्थनः । इसका अर्थ है—नयके द्वारा घटादि दृष्टान्तके असाधारण स्वरूपका निरूपण करना । इस दृष्टिसे नय दृष्टान्तका समर्थक होता है । श्री श्रेयांस जिनके मत में. प्रमाण और नयकी उक्त प्रकारसे व्यवस्था होती 1
विवक्षितो मुख्य इतीष्यतेऽन्यो गुणोऽविवक्षो न निरात्मकस्ते । तथारिमित्रानुभयादिशक्ति
द्वयावधेः कार्यकरं हि वस्तु ॥ ३ ॥
सामान्यार्थ - हे श्र यांस जिन ! आपके मत में विवक्षित धर्म मुख्य होता है: और दूसरा अविवक्षित धर्म गौण कहलाता है । जो अविवक्षित है वह निःस्वभाव नहीं होता है । इस प्रकार मुख्य और गौणकी व्यवस्थासे अरि, मित्र, अनुभय आदि शक्तियोंको धारण करनेवाली वस्तु दो अवधियों (मर्यादाओं) से ही कार्य ( अर्थक्रिया ) करने में प्रवृत्त होती है ।
विशेषार्थ - वक्ताको इच्छाको विवक्षा कहते हैं । वक्ता जिस धर्मका प्रतिपादन करता है वह विवक्षित होनेसे मुख्य हो जाता है और उसका प्रतिपक्षी दूसरा धर्म अविवक्षित होनेसे गौण हो जाता है । अस्तित्व धर्मकी विवक्षाके समय अस्तित्व मुख्य धर्म है और नास्तित्व गौण धर्म है । इसी प्रकार नास्तित्व धर्मकी विवक्षाके समय नास्तित्व मुख्य धर्म है और अस्तित्व गौण धर्म है । यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि दो धर्मों में मुख्य और गौणकी व्यवस्था वक्ता अभिप्रायके अनुसार होती है, वस्तुके स्वरूपके अनुसार नहीं । वस्तुमें तो दोनों धर्म समान हैं । वक्ता जब दो धर्मोका प्रतिपादन करना चाहता है उस समय
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org