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( ११ ) श्री श्रेयांस जिन स्तवन श्रेयान् जिनः श्रेयसि वर्मनीमाः
श्रेयः प्रजाः शासदजेयवाक्यः । भवांश्चकाशे भुवनत्रयेऽस्मि
न्नेको यथा वीतघनो विवस्वान् ॥१॥ सामान्यार्थ-हे श्रेयांसनाथ भगवन् ! कर्म शत्रुओंको जीतनेवाले और अबाधित वचनोंसे युक्त आप इन प्रजाजनोंको मोक्षमार्गमें हितका उपदेश देते हुए इन तीनों लोकोंमें अकेले ही मेघोंके आवरणसे रहित सूर्यके समान प्रकाशमान
विशेषार्थ-ग्यारहवें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ भगवान् कर्मशत्रुओंको जीतनेके कारण अथवा कषायों और इन्द्रियोंको जीतनेके कारण जिन हैं तथा उनके वचन प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे अबाधित हैं। कोई भी एकान्तवादी उनके वचनोंमें किसी प्रकारकी बाधा उपस्थित नहीं कर सकता है । श्री श्रेयांस जिनने संसारमें परिभ्रमण करनेवाले इन प्रजाजनोंको हितका उपदेश देकर मोक्षमार्गमें लगाया है । ऐसा करते हुए श्री श्रेयांस जिन अकेले ही तीनों लोकोंमें उसी प्रकार शोभायमान हुए हैं जिस प्रकार सूर्य मेघोंके आवरणसे रहित होकर अकेला ही आकाशमें सुशोभित होता है। ___यदि सूर्यके ऊपर मेघोंका आवरण आ जाये तो वह मेघोंके आवरणसे आच्छादित होकर प्रकाशित नहीं होता है। किन्तु मेघ पटलोंके नष्ट हो जानेपर वही सूर्य अपनी अप्रतिहत किरणोंके द्वारा अन्धकारका विनाश करता हुआ दृष्टिशक्तिसे सम्पन्न लोगोंको इष्ट स्थानकी प्राप्ति करा देता है । इसी में सूर्यकी शोभा है । सूर्य बाह्य अन्धकारको नष्ट करता है। किन्तु श्री श्रेयांस जिन भव्य जीवोंके अन्तरंगमें विद्यमान अज्ञानान्धकारको नष्ट करते हैं। उन्होंने आत्माके ऊपर पड़े हुए घातिया कर्मोके आवरणको नष्ट कर दिया है। इसी कारण उनके वचन अजेय और अबाधित हैं । उन्होंने अपने कल्याणकारक वचनोंके द्वारा भव्य जीवोंके अज्ञानान्धकारको नष्ट करते हुए उन्हें मोक्षमार्गमें लगाया है। यही कारण है कि वे अकेले ही त्रिभुवनमें सुशोभित हुए हैं । . संस्कृत टीकाकारने इस श्लोककी व्याख्यामें श्रेयः शब्दको दो प्रकारसे निरू
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