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स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका त्वमुत्तमज्योतिरजः क्व निर्वृतः
क्व ते परे बुद्धिलवोद्धवक्षताः । ततः स्वनिःश्रेयसभावनापरै
बुधप्रवेजिन शीतलेड्यसे ॥ ५ ॥ (५०)
सामान्यार्थ--हे शीतल जिन ! कहाँ तो आप केवलज्ञानरूप उत्तम ज्योतिके धारक, पुनर्जन्मसे रहित और परम सुखी तथा कहाँ वे दूसरे देवता अथवा तपस्वी जो लेशमात्र ज्ञानके गर्वसे नाशको प्राप्त हुए हैं। इसीलिए अपने कल्याणकी भावनामें तत्पर गणधरादि श्रेष्ठ ज्ञानियों के द्वारा आपकी स्तुति की जाती है।
विशेषार्थ-यहाँ संसारके अन्य देवताओंसे शीतलनाथ भगवान्की विशेषता बतलायी गयी है। हे भगवन् ! आपमें और उनमें बड़ा भारी अन्तर है । आप परमातिशयको प्राप्त केवलज्ञानरूप उत्तम ज्योतिके धारक है। आपके ज्ञानगुणका इतना अतिशय है कि उसके द्वारा अलोकाकाश सहित त्रिलोकवर्ती समस्त पदार्थोंका युगपत् साक्षात् ज्ञान होता है । आपसे अन्य जो हरि, हर, हिरण्यगर्भ आदि देवता हैं उनमें पदार्थोंका लेशमात्र ज्ञान पाया जाता है । फिर भी वे उस लेशमात्र ज्ञानसे अपनेको बड़ा ज्ञानी समझते हैं। यही कारण है कि अल्प ज्ञानसे उत्पन्न अहंकार द्वारा वे नष्ट हो रहे हैं और संसारके क्लेशोंका अनुभव कर रहे हैं। ___आप अजन्मा हैं। अब आगे आपको जन्म धारण नहीं करना है। आपका यह अन्तिम जन्म है। इसके बाद आपको अनन्तकाल तक सिद्धशिलामें विराजमान रहना है । मुक्त जीव वहाँ से लौटकर फिर कभी संसारमें नहीं आता है । दूसरे देव सजन्मा हैं। उन्हें मोक्षमार्गका ज्ञान न होनेके कारण अभी अनन्त जन्मोंको धारण करना है और संसारके दुःखोंको भोगना है। आप सांसारिक सुखोंकी इच्छासे रहित होनेके कारण परम सुखी हैं, अनन्त सुखसे सम्पन्न हैं। किन्तु दूसरे देव सांसारिक विषयोंकी तृष्णाके कारण सदा दुःखी रहते हैं । उन्हें अपत्य, धन, स्त्री, स्वर्ग आदिको प्राप्त करनेकी तृष्णा बनी रहती है और इस तृष्णाके कारण उन्हें कभी शान्तिकी प्राप्ति नहीं होती है।
हे शीतल जिन ! आपमें और अन्य देवोंमें कितना महान् अन्तर है । इसीलिए जो आत्मकल्याणके लिए रत्नत्रयके अभ्यासमें तत्पर हैं ऐसे गणधरादि श्रेष्ठ ज्ञानियोंके द्वारा आपकी स्तुति की जाती है ।
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