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स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदोपिका
चारित्र ये तीनों अमृतके समान हैं। और इस अमृतका पान करनेसे श्री शोतल जिनने अपनी आत्माको निर्मोह, निर्मल और शान्त कर लिया था तथा संसारके दुःखोंसे संतप्त प्राणियोंको भी इसी अमृतपानका उपदेश दिया था जिससे के संसारके दुःखोंसे मुक्त होकर शीतलता प्राप्त कर सकें।
स्वजीविते कामसुखे च तृष्णया
दिवा श्रमार्ता निशि शेरते प्रजाः । त्वमार्य नक्तंदिवमप्रमत्तवा
नजागरेवात्मविशुद्धवर्त्मनि ॥ ३ ॥ सामान्यार्थ-लौकिक जन अपने जीवनमें तथा काम सुखमें तृष्णाके कारण दिनमें श्रम करनेसे दुःखी रहते हैं और रात्रिमें सो जाते हैं। परन्तु हे आर्य शीतल जिन ! आप रात-दिन प्रमादरहित होकर आत्माकी विशुद्धिके मार्गमें जागते ही रहे हैं।
विशेषार्थ-यहाँ संसारी प्राणियोंसे शीतलनाथ भगवान्में जो विशेषता है उसको बतलाया गया है। संसारी प्राणियोंकी अभिलाषा सदा यही रहती है कि हमारा जीवन सुरक्षित रहे, हम अधिकसे अधिक जियें और हमारी कभी अकाल मृत्यु न हो । इस प्रकार अपने जीवनके विषयमें तृष्णा बनी रहती है। इसी प्रकार कामसुखमें भी तृष्णाका सद्भाव पाया जाता है । स्त्री आदिकी अभिलाषाको काम कहते हैं और इससे जो सुख होता है वह कामसुख है । इन्द्रिय विषयजन्य सुखको भी कामसुख कहते हैं। संसारी प्राणियोंकी तृष्णा कामसुखमें सदा बनी रहती है और यह तृष्णा कभी समाप्त नहीं होती है, किन्तु उत्तरोत्तर बढ़ती ही जाती है । इस तृष्णाकी पूतिके लिए संसारी प्राणी दिनमें सेवा, कृषि आदि कार्योंके करनेमें श्रम करते हैं और उस श्रमसे थककर रात्रिमें सो जाते हैं । तात्पर्य यह है कि उन्हें कभी आत्माके विषयमें चिन्तन करनेका तथा सन्मार्ग पर चलनेका अवसर ही नहीं मिलता है । वे तो सदा तृष्णाकी पूर्तिके चक्कर में ही पड़े रहते हैं। ____ इसके विपरीत श्री शीतल जिन प्रमाद रहित होकर आत्माकी विशुद्धिके मार्ग में रात-दिन जागते ही रहे हैं । कर्मबन्धके कारणोंमें प्रमाद भी एक कारण है । और श्री शीतल जिनने प्रमाद पर विजय प्राप्त कर ली है । प्रमादी जन कभी भी सन्मार्गपर नहीं चल सकता है । जिस मार्गपर चलकर आत्मा सर्व कर्मकलंक रहित हो जाता है वह आत्मविशुद्धिका मार्ग है। अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप मोक्षमार्ग ही आत्मविशुद्धिका मार्ग है। अतः श्री
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