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( १२ ) श्री वासुपूज्य जिन स्तवन
शिवासुपूज्योऽभ्युदयक्रियासु
त्वं वासुपूज्यस्त्रिदशेन्द्र पूज्यः ।
मयापि पूज्योऽल्पधिया मुनीन्द्र
दीपाचिषा कि तपनो न पूज्यः ॥ १ ॥
सामान्यार्थ - हे मुनीन्द्र ! वासुपूज्य नामको धारण करनेवाले आप कल्याणकारिणी स्वर्गावतरण आदि कल्याणक क्रियाओं में पूज्य हैं तथा देवेन्द्रके द्वारा भी पूज्य हैं । इसलिए अल्पबुद्धि मेरे द्वारा भी पूज्य हैं। क्या सूर्य दीपशिखाके द्वारा पूज्य नहीं होता है ? अर्थात् अवश्य पूज्य होता है ।
विशेषार्थ - बारहवें तीर्थंकरका नाम वासुपूज्य है । राजा वसुपूज्यके पुत्र होनेके कारण इनका नाम वासुपूज्य है । गणधरादि मुनियोंके स्वामी होनेके कारण वे मुनीन्द्र हैं । गर्भादि कल्याणकों की प्रशस्त क्रियाओंके अवसरपर अवधिज्ञानी इन्द्र तथा विशिष्टज्ञानी चक्रवर्ती आदिके द्वारा पूज्य हैं । यहाँ स्तुतिकार कहते हैं कि हे भगवन् ! आप बड़े-बड़े ज्ञानियोंके द्वारा पूज्य हैं और मैं अल्पबुद्धका धारक हूँ । मुझमें इतनी शक्ति कहाँ है जो मैं आपकी पूजा (स्तुति) कर सकूँ । फिर भी भक्तिवश मन्दबुद्धि मैं आपकी स्तुति करनेमें प्रवृत्त हो रहा हूँ । इस विषय में मुझे दीपशिखाके द्वारा सूर्यकी पूजासे प्रेरणा मिली है । सूर्य प्रचण्ड तेजका धारक है, प्रकाश पुंज है। फिर भी भक्तजन दीपशिखाके द्वारा सूर्य की पूजा करते हैं । कहाँ तेजका भण्डार सूर्य और कहाँ टिमटिमाती दीपशिखा । दोनों में कितना अन्तर है । फिर भी भक्तिवश दीपशिखाके द्वारा सूर्य की पूजा की जाती है ।
हे वासुपूज्य जिन ! आप केवलज्ञानी हैं और मैं अल्पबुद्धि हूँ । मुझमें और आपमें महान् अन्तर है । मैं अपनी अल्पबुद्धि के द्वारा आपकी क्या स्तुति कर सकता हूँ । फिर भी आपकी तीव्र भक्तिवश मैं आपकी स्तुति कर रहा हूँ ।
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यहाँ दीपके द्वारा सूर्यकी पूजाका जो दृष्टान्त दिया गया है उसे हिन्दूधर्मकी अपेक्षासे ही समझना चाहिए | क्योंकि हिन्दू लोग दीपक जलाकर सूर्य की आरती उतारते हैं तथा पूजा करते । किन्तु जैनधर्म में ऐसी कोई मान्यता नहीं है ।
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