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स्वयम्भू स्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका
दोनों धर्मों प्रतिपादन एक साथ नहीं हो सकता है, किन्तु उनका प्रतिपादन क्रमशः ही होता है । ऐसी स्थिति में विवक्षित धर्मको मुख्य और अविवक्षित धर्मको गौण मानना आवश्यक है । जो अविवक्षित धर्म है वह अभावरूप नहीं है । जब वस्तु अस्तित्व धर्म विवक्षित होता है तब नास्तित्व धर्म भी वहाँ विद्यमान रहता है, किन्तु उस समय वह वक्ता की दृष्टिसे ओझल रहता है ।
इस मुख्य और गौणकी व्यवस्थाके कारण एक ही पदार्थ अरि, मित्र, उभय, अनुभय आदि शक्तियोंसे युक्त देखा जाता है । एक ही देवदत्त उपकार करनेके कारण किसीका मित्र है और अपकार करनेके कारण किसीका शत्रु है । क्रमशः उपकार और अपकार करनेके कारण वह किसीका मित्र और शत्रु दोनों है । और किसीके प्रति उदासीन रहनेसे वह अनुभय है, वह उसका न मित्र है और
शत्रु है । इसी प्रकार प्रत्येक वस्तु कथंचित् अस्तिरूप है, कथंचित् नास्तिरूप है, कथंचित् उभयरूप है और कथंचित् अनुभय रूप है । यह सव व्यवस्था स्याद्वाद सिद्धान्त के अनुसार होती है ।
प्रत्येक वस्तु विधि और निषेध, सामान्य और विशेष, द्रव्य और पर्याय इत्यादि प्रकार से दो मर्यादायें पायी जाती हैं । इन्हीं दो अवधियों (मर्यादाओं) के कारण हो घटादि वस्तु अर्थक्रियाकारी होती है । यदि कोई वस्तु सर्वथा अस्तिरूप हो अथवा सर्वथा नास्तिरूप हो, सर्वथा सामान्यरूप हो अथवा सर्वथा विशेष रूप हो, सर्वथा द्रव्यरूप हो अथवा सर्वथा पर्यायरूप हो तो वह वस्तु कुछ भी अर्थक्रिया नहीं कर सकती है । किन्तु दो अवधियोंसे सम्पन्न वस्तु ही अर्थक्रियाकारी होती है । प्रत्येक वस्तु कुछ न कुछ अर्थक्रिया अवश्य करती है । जैसे जलधारण, आहरण आदि घट की अर्थक्रिया है, उसी प्रकार प्रत्येक वस्तुकी अर्थक्रिया ( कार्य ) अवश्य होती । श्री श्र ेयांस जिनके मतमें उक्त प्रकारकी व्यवस्था प्रमाणसंगत होनेसे निर्विरोध है । किन्तु एकान्तवादियोंके मत में ऐसी व्यवस्था संभव नहीं है ।
दृष्टान्तसिद्धावुभयोर्विवादे
साध्यं प्रसिद्ध्येन्न तु तादृगस्ति ।
यत्सर्वथैकान्तनियामि दृष्टं त्वदीयदृष्टिविभवत्यशेषे
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सामान्यार्थ - वादी और प्रतिवादी दोनों के विवाद में दृष्टान्तकी सिद्धि होनेपर साध्य प्रसिद्ध होता है । परन्तु वैसी दृष्टान्तभूत कोई वस्तु दृष्टिगोचर नहीं हो रही है, जो सर्वथा एकान्तकी नियामक हो सके। क्योंकि अनेकान्तदृष्टि सबमें अपना प्रभाव डाले हुए है ।
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