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श्री शीतल जिन स्तवन
८७ शीतल जिन अप्रमत्त रहकर आत्मविशुद्धिके मार्गमें निरन्तर जाग्रत् ही रहे हैं ।
अपत्यवित्तोत्तरलोकतृष्णया
तपस्विनः केचन कर्म कुर्वते । भवान् पुनर्जन्मजराजिहासया
त्रयों प्रवृत्ति समधीरवारुणत् ॥४॥ सामान्यार्थ-हे शीतल जिन ! कितने ही तपस्वी जन सन्तान, धन तथा परलोककी तृष्णासे अग्निहोत्र आदि कर्म करते हैं। किन्तु समबुद्धि आपने पुनजन्म और जराको दूर करनेकी इच्छासे मन, वचन और कायकी प्रवृत्ति को रोका है।
विशेषार्थ-संसारी जनोंको इस लोकमें पुत्रादि संतानको इच्छा, धनवैभव की इच्छा और परलोकमें स्वर्गादिकी इच्छा सदा बनी रहती है । यह साधारण जनोंकी बात है। किन्तु आश्चर्यकी बात यह है कि मीमांसक, शैव आदि कितने ही तपस्वी या व्रती भी ऐसे हैं जो तपश्चरण करते हुए भी पुत्रादिकी प्राप्तिके लिए, धनकी प्राप्तिके लिए और स्वर्गादिकी प्राप्तिके लिए अग्निहोत्र यज्ञ आदि कर्म करते हैं। उनके शास्त्रोंमें पुत्रादिको प्राप्तिके लिए विभिन्न प्रकार के अनुष्ठान बतलाये गये हैं और वे पुत्रादिकी तृष्णाके वशीभूत होकर अग्निहोत्र आदि यज्ञ कर्मोके करने में संलग्न रहते हैं। और इस प्रकार अपने तपश्चरणको तृष्णाके कारण निष्फल करते रहते हैं । यह है कुछ तपस्वी जनोंको स्थिति ।
हे शीतल जिन ! आपकी बुद्धि (विवेक), मोह (मिथ्यात्व) और क्षोभ (रागद्वेष) से रहित होनेके कारण सम है । इसलिए आप सन्तान, धन तथा स्वर्गादि परलोककी तृष्णासे रहित हैं । आपने तो सदा जन्म, जरा और तृष्णाको दूर करनेका प्रयत्न किया है। और इसके लिए मन, वचन और कायकी प्रवृत्तिको रोका है । अर्थात् योग निरोध किया है । मन, वचन और कायकी प्रवृत्तिको योग कहते हैं । इस योगसे कर्मोंका आस्रव तथा बन्ध होता है । यह योग ही पुनर्जन्म आदि संसार परिभ्रमणका कारण है । अतः आपने आत्मविकासकी स्थितिमें पहुँचकर योगोंका निरोध करके संसार परिभ्रमणसे मुक्त होनेका मार्ग प्रशस्त किया है । इसके विपरीत दूसरे तपस्वियोंने स्वर्गादि प्राप्तिकी इच्छाके वशीभूत होकर अग्निहोत्र आदि यज्ञ कर्म करते हुए संसार परिभ्रमणके मार्गका ही अनुसरण किया है । इस प्रकार श्री शीतल जिन और अन्य तपस्वियोंकी प्रवृत्तियोंमें बड़ा भारी अन्तर है।
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