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(६) श्री सुविधि जिन स्तवन एकान्तदृष्टिप्रतिषेधि तत्त्वं
प्रमाणसिद्धं तदतत्स्वभावम् । त्वया प्रणीतं सुविधे स्वधाम्ना
__नैतत् समालोढपदं त्वदन्यैः ॥१॥ सामान्यार्थ--हे सुविधि जिन ! आपके द्वारा अपने ज्ञान तेजसे प्रतिपादित जीवादि तत्त्व एकान्तदर्शनका निषेध करनेवाला है, प्रमाण सिद्ध है, और तत्अतत् (विधि-निषेध) स्वभावसे युक्त है। और आपसे भिन्न सौगत, नैयायिक आदि एकान्तवादियोंके द्वारा ऐसे तत्त्वका स्वरूप अनुभूत नहीं है।
विशेषार्थ-नवम तीर्थंकरका नाम सुविधिनाथ है । यह नाम सार्थक है । सुविधिका अर्थ है-जिनके तपश्चरणादि क्रियाओंका अनुष्ठान उत्तम है । सुविधिनाथका दूसरा नाम पुष्पदन्त भी है। वर्तमान में यही नाम अधिक प्रचलित है। सुविधिनाथ भगवान्ने केवलज्ञानके द्वारा समस्त तत्त्वोंका साक्षात्कार करके उनके स्वरूपका प्रतिपादन किया था। उन्होंने बतलाया है कि जीवादि तत्त्व एकान्तदृष्टिका प्रतिषेधक है। प्रत्येक तत्त्व अनेकधर्मात्मक है, एकधर्मात्मक नहीं । जो लोग परस्पर विरोधी प्रतीत होनेवाले दो धर्मों में से एक धर्मको ही स्वीकार करते हैं वे एकान्तवादी हैं और उनका दर्शन एकान्तदर्शन है । सदेकान्त, असदेकान्त, नित्यैकान्त, अनित्यैकान्त, भावकान्त, अभावैकान्त इत्यादि प्रकारसे एकान्तदर्शन अनेक प्रकारका है। इन एकान्तोंके स्वरूपका जब विचार किया जाता है तब किसी युक्ति अथवा प्रमाणसे उसकी सिद्धि नहीं होती है। श्री सुविधि जिनने जीवादि तत्त्वोंका जो प्रणयन किया है उससे सिद्ध होता है कि प्रत्येक तत्त्व अनेकान्तरूप है, एकान्तरूप नहीं। उन तत्त्वोंका प्रतिपादन एकान्तदृष्टिका प्रतिषेधक और अनेकान्तदृष्टिका समर्थक है ।
प्रत्येक तत्त्व अनेकान्तरूप है, इस बातको सिद्ध करनेके लिए कहा गया है कि जीवादि तत्त्व तत्-अतत् स्वभाववाला है। जिस स्वभावका प्रतिपादन करना है वह तत्-स्वभाव है और उसका विरोधी स्वभाव अतत-स्वभाव है । जैसे 'जीव सत् है' ऐसा कहते समय जीवका सत्त्व तत्-स्वभाव है। 'और जीव असत् है' ऐसा कहते समय जीवका असत्त्व अतत-स्वभाव है। इसीको विधि और निषेध कहते हैं । सत् विधि है और असत् निषेध है। इसीको विवक्षित और अविवक्षित भी
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