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श्री सुविधि जिन स्तवन
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"स्थितिमें पदार्थोंकी व्यवस्थाका कोई व्यवस्थापक न रहनेसे शून्यताका दोष दुर्निवार है ।
अतः शून्यता दोष के निराकरण के लिए विधि और निषेधको न तो पदार्थों से • सर्वथा भिन्न मानना चाहिए और न सर्वथा अभिन्न मानना चाहिए । किन्तु कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न मानना चाहिए । सुविधिनाथ जिनेन्द्रका यही युक्तिसंगत तथा प्रमाणसंगत वचन है ।
नित्यं
तदेवेदमिति
प्रतीते
र्न नित्यमन्यत्प्रतिपत्तिसिद्धः ।
न तद्विरुद्धं बहिरन्तरङ्गनिमित्तनैमित्तिकयोगतस्ते
॥ ३ ॥
नित्य नहीं है । आपके
सामान्यार्थ - 'यह वही है' ऐसी प्रतीति होनेसे जीवादि वस्तु नित्य है । - और 'यह अन्य है' इस प्रकारको प्रतीतिकी सिद्धि से वह मत में बहिरंग तथा अन्तरंग कारण और कार्यके सम्बन्धसे अनित्य रूप होना विरुद्ध नहीं है ।
वस्तुका नित्य और
विशेषार्थ - यहाँ नित्यत्व और अनित्यत्व इन दो धर्मों के सग्दर्भ में वस्तुका विचार किया गया है । जीवादि वस्तु नित्य है, क्योंकि प्रत्यभिज्ञानके द्वारा 'यह वही है' ऐसी प्रतीति होती है । जैसे यह वही देवदत्त है जिसे एक वर्ष पहले देखा था । यह प्रत्यभिज्ञानका उदाहरण है । यहाँ पहले देखे गये देवदत्तमें और आज दिख रहे देवदत्त में एकत्वकी प्रतीति प्रत्यभिज्ञानसे होती है । जन्मसे लेकर मृत्युपर्यन्त देवदत्तकी बाल्यावस्था, युवावस्था, वृद्धावस्था आदि अनेक अवस्थाएँ होती हैं । उन अवस्थाओं में रहनेवाला देवदत्त एक ही है, भिन्न-भिन्न नहीं । इस बातकी प्रतीति प्रत्यभिज्ञान नामक प्रमाणसे होती है । इसी प्रकार विभिन्न • पर्यायों में रहनेवाला प्रत्येक जोवादितत्त्व नित्य या एक है । जब हम द्रव्यार्थिकनयी दृष्टिसे वस्तुका विचार करते हैं तब वस्तु नित्य सिद्ध होती है । किन्तु पर्यायार्थिकनकी दृष्टिसे वस्तुका विचार करते समय वही वस्तु अनित्य हो जाती है । देवदत्तकी बाल्यावस्थासे युवावस्था भिन्न है और युवावस्था से वृद्धावस्था भिन्न है | अतः अवस्था भेदसे देवदत्त भी भिन्न-भिन्न हो जाता है । इसी प्रकार जीवादि वस्तु पर्याय भेदसे अनित्य सिद्ध होती है । तात्पर्य यह है कि जीवादि वस्तु न तो सर्वथा नित्य है और न सर्वथा अनित्य । किन्तु कथंचित् नित्य है और · कथंचित् अनित्य ।
अब यहाँ इस बात पर विचार करना है कि एक हो वस्तुमें नित्यत्व और
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