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__ श्री सुविधि जिन स्तवन विशेषार्थ--श्री सुविधि जिनने कर्म शत्रुओंको जीत लिया है इसलिए वे जिन कहलाते हैं । ऐसे जिनका 'स्यादेकं पदस्य वाच्यं स्यादनेकम्' इत्यादि स्यात् शब्दसे युक्त जो यह वाक्य है वह प्रधान और गौणके अभिप्रायको लिए हुए है । पदोंके समूह को वाक्य कहते हैं। जब पद प्रधान और गौण भावको लिए हुए होता है तो पदोंका समूह रूप वाक्य भी गौण और प्रधानके अभिप्रायको लिए हुए ही होता है । जो धर्म विवक्षित होता है वह प्रधान हो जाता है और अविवक्षित धर्म गौण कहलाता है। किन्तु दोनों धर्म वस्तुमें रहते अवश्य हैं । जब एकत्व धर्म विवक्षित होता है तब वह प्रधान होता है और अनेकत्व धर्म गौण हो जाता है । और जब अनेकत्व धर्म विवक्षित होता है तब वह प्रधान होता है और एकत्व धर्म गौण हो जाता है । इस प्रकार धर्मोमें प्रधानता और गौणता विवक्षा और अविवक्षाके कारण होती है। गौण और प्रधानके अभिप्रायको लिए हुए उक्त प्रकारका वाक्य सौगत, सांख्य आदि एकान्तवादियोंके लिए अनिष्ट है। एकान्तवादी लोग श्री सुविधि जिनसे द्वेष रखते हैं । क्योंकि यदि वे स्यात् शब्दसे युक्त वाक्यको स्वीकार कर लेंगे तो उनके एकान्त मत की हानि हो जायेगी । यही कारण है कि गौण और प्रधानके आशयको लिए हुए स्यात् शब्दसे युक्त वाक्य उनको अनिष्ट है।
हे सुविधि जिन ! आप साधु हैं-समस्त कर्मोका क्षय करने के लिए प्रयत्नशील हैं । आपका उपदेश समस्त जीवोंका कल्याण करनेवाला है। इसके विपरीत एकान्तवादियों का उपदेश जीवोंको कुमार्गपर ले जानेवाला है । आपके उपदेशकी इस विशेषतासे प्रभावित होकर ही जगत्के स्वामी इन्द्र, चक्रवर्ती आदि आपके चरण कमलों की वन्दना करते हैं और मैं भी श्रद्धापूर्वक आपके चरणकमलोंकी वन्दना कर रहा हूँ।
___ मुद्रित प्रतियों में इस श्लोकके द्वितीय चरण में 'तद् द्विषतामपण्यम्' ऐसा पाठ है । किन्तु इसके स्थानमें 'त्वद्विषतामपथ्यम्' ऐसा पाठ युक्तिसंगत प्रतीत होता है। श्री अर जिन स्तवनके पन्द्रहवें श्लोकमें 'त्वद्विषः' शब्दका प्रयोग देखिए । उसी प्रकार यहाँ भी 'त्वद्विषताम्' ऐसा पाठ होना चाहिए।
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