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श्री सुविधि जिन स्तवन
कहते हैं । जब सत्त्व धर्मको कहने की विवक्षा होती है तब वह विवक्षित धर्म है और उसका विरोधी असत्त्व अविवक्षित धर्म है । जीव स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षासे सत् है और परद्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा असत् है । जीव कथंचित् सत् है, सर्वथा नहीं। वह कथंचित् सत् है और कथंचित् असत् भी है । अतः वह तत् अतत् स्वभाववाला है । प्रत्येक पदार्थ स्वरूप की अपेक्षासे तत्स्वरूप है और पररूपकी अपेक्षासे अतत्स्वरूप है । इसी प्रकार जीवादि तत्त्व द्रव्यकी अपेक्षासे नित्यरूप है और पर्यायकी अपेक्षासे अनित्यरूप है । सामान्यकी अपेक्षासे वह एक रूप है और विशेषकी अपेक्षासे अनेक रूप है । इस प्रकार प्रत्येक तत्त्वमें तत्-अतत् स्वभावकी व्यवस्था युक्तिसंगत बन जाती है । श्री सुविधि जिन द्वारा प्रतिपादित जीवादि तत्त्व प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे सिद्ध होनेके कारण अबाधित हैं । सौगत, नैयायिक आदि एकान्तवादी ऐसे तत्त्वका अनुभव नहीं कर सकते हैं । वे तो कहते हैं कि तत्त्व सर्वथा एकधर्मात्मक है, वह अनेक धर्मात्मक हो ही नहीं सकता । अतः उनका कथन एकान्तदृष्टिको लिए हुए होने के कारण प्रमाण बाधित है ।
तदेव च स्यान्न तदेव च स्यात्
तथाप्रतीतेस्तव कथञ्चित् ।
च
विधेर्निषेधस्य च शून्यदोषात् ॥ २ ॥
नात्यन्तमन्यत्वमनन्यता
सामान्यार्थ - हे सुविधि जिन ! आपके द्वारा अभिमत वह तत्त्व कथंचित् तद्रूप है और कथंचित् तद्रूप नहीं है । क्योंकि वैसी प्रतीति होती है । विधि और निषेधका पदार्थसे न तो सर्वथा भेद है और न सर्वथा अभेद है । क्योंकि ऐसा मानने पर शून्यताका दोष आता है ।
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विशेषार्थ - सुविधिनाथ भगवान् के द्वारा प्रतिपादित जीवादि तत्त्व किसी अपेक्षासे तद्रूप हैं और किसी अपेक्षासे अतद्रूप हैं । किसी अपेक्षासे सद्रूप हैं और किसी अपेक्षा असद्रूप हैं । किसी अपेक्षासे विधिरूप हैं और किसी अपेक्षासे निषेधरूप हैं । क्योंकि प्रत्यक्षादि प्रमाणों के द्वारा वस्तु तत्त्वकी ऐसी ही प्रतीति होती है । यहाँ सत् और असत् धर्मको लेकर जीवादि तत्त्व में तद्रूपता और अतद्रूपता को समझाया जा रहा है । जीव स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षासे सत् है । और परद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षासे असत् है । स्वद्रव्यादिचतुष्टयकी अपेक्षासे जीव का अस्तित्व है और परद्रव्यादिचतुष्टयकी अपेक्षासे जीवका अस्तित्व नहीं है । जीव न तो सर्वथा सत् है और न सर्वथा
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