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स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका तत्त्व सात होते हैं । उपरि उल्लिखित हेय और उपादेय तत्त्वोंका भी इन्हीं सात तत्त्वोंमें अन्तर्भाव हो जाता है । जिसमें उपयोग (ज्ञान और दर्शन) पाया जाता है वह जीव है। उपयोगको चेतना भी कहते हैं। जो उपयोग रहित होता है वह अजीव है । अजीवके पाँच भेद होते हैं-पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । जिसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श पाया जाता है वह पुद्गल है । पुद्गल रूपी द्रव्य है और शेष धर्मादि चार द्रव्य अरूपी हैं । जो शुभ और अशुभ कर्मोके आगमनका द्वाररूप होता है वह आस्रव है । मन, वचन और कायकी क्रियाका नाम योग है । इस योग द्वारा कर्म आते हैं । अतः योगको आस्रव कहते हैं । कषाय सहित होनेके कारण जीव कर्मके योग्य पुद्गलोंको ग्रहण करता है वह बन्ध कहलाता है । अर्थात् कार्मण वर्गणाओंका आत्मप्रदेशोंके साथ संश्लेषरूप सम्बन्धको प्राप्त होना ही बन्ध है । मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पाँच बन्धके हेतु हैं । कर्मोके आगमनको रोक देना संवर है । अर्थात् आस्रवका निरोध करना संवर है । यह संवर गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्रके द्वारा होता है । आत्माके साथ बँधे हुए कर्मोंका झड़ जाना निर्जरा है । निर्जरा दो प्रकारकी होती है-सविपाक और अविपाक । फलकालके प्राप्त होनेपर फल देकर कर्मोंकी जो स्वतः निर्जरा होती है वह सविपाक निर्जरा है। तथा फलकालके प्राप्त हुए बिना ही तप आदिके अनुष्ठानसे उदीरणा द्वारा फल देकर जो कर्मोंकी निर्जरा होती है वह अविपाक निर्जरा है । बन्धके हेतुओंके अभाव तथा निर्जराके द्वारा सब कर्मोंका सर्वथा क्षय हो जाना मोक्ष है । श्री सुपार्श्व जिन उक्त सब तत्त्वोंके प्रमाता थे। __यहाँ स्तुतिकार कहते हैं कि यतः श्री सुपार्श्व जिन सब तत्त्वोंके प्रमाता, सबजीवोंके हितानुशास्ता और गुणावलोकी जनोंके नेता हैं, अतः मेरे द्वारा स्तुत्य हैं । मैं भक्तिपूर्वक मन, वचन और कायसे श्री सुपार्श्व जिनको स्तुति कर रहा हूँ । __ कुछ मुद्रित प्रतियोंमें इस श्लोकके अन्तिम चरण में 'परिणयसेऽद्य' ऐसा पाठ है । यहाँ यह दृष्टव्य है कि उक्त श्लोकमें कर्ता 'भवान्' है । अतः भवान् कर्ताके साथ 'परिणूयते' क्रियाका सम्बन्ध ठीक बैठता है। यहाँ 'परिणूयसे' ऐसा क्रिया पद रखनेपर अलगसे 'त्वम्' कर्ताका उपसंहार करना पड़ेगा, जो कि अनावश्यक है । अतः श्री मुख्तार सा० ने 'परिणयसे' के स्थानमें परिणूयते' पाठ रक्खा है जो सर्वथा उपयुक्त है।
१. जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् ।
-तत्त्वार्थ सूत्र १/४
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