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स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका अर्थात् यह संसारी प्राणी अज्ञ है तथा अपने सुख और दुःखको उत्पन्न करने में असमर्थ है । यह ईश्वर की प्रेरणासे स्वर्ग या नरकमें जाता है। कहनेका तात्पर्य यह है कि यह जीव पूर्णरूपसे ईश्वर के अधीन है । ईश्वर ही इसे सुखी या दुःखी करता है और ईश्वर ही इसे स्वर्ग या नरकमें भेजता है ।
ईश्वरवादियों का उक्त कथन तर्कसंगत नहीं है। क्योंकि एक स्वभाववाला ईश्वर स्वर्ग-नरकादि को रचना, सुख-दुःखादि की उत्पत्ति तथा जीवों को स्वर्गनरकादिमें भेजने रूप विभिन्न कार्योंको नहीं कर सकता है। ईश्वर दयालु भी है। तब वह किसीको सुखी और किसी को दुःखी क्यों बनाता है । यदि कहा जाय कि जिसका जैसा अदृष्ट होता है उसीके अनुसार ईश्वर उसको फल देता है, तो फिर ईश्वर सुखादि कार्योंके करने में स्वतन्त्र नहीं रहा, वह तो अदृष्टके अधीन होनेके कारण परतन्त्र हो गया। अतः जीवों के सुख-दुःखादि कार्योंका कारण ईश्वर नहीं है । किन्तु भवितव्यता हो उनका कारण है । इस प्रकार कार्य और कारणके विषयमें श्री सुपार्श्व जिनका उपर्युक्त कथन प्रमाणसंगत होनेसे उपादेय है । बिभेति मृत्योर्न ततोऽस्ति मोक्षो
नित्यं शिवं वाञ्छति नास्य लाभः । तथापि बालो भयकामवश्यो
वृथा स्वयं तप्यत इत्यवादीः ॥ ४ ॥ सामान्यार्थ-हे सुपार्श्व जिन ! आपने यह भी बतलाया है कि यह जीव मृत्युसे डरता है, परन्तु उससे छुटकारा नहीं मिलता। यह सदा कल्याण अथवा निर्वाण की इच्छा करता है, किन्तु इसका लाभ नहीं होता। फिर भी भय और कामके वशीभूत हुआ यह अज्ञानी जीव व्यर्थ ही स्वयं संतप्त होता रहता है।
विशेषार्थ-संसार का प्रत्येक प्राणी सदा मृत्यु से डरता रहता है । कोई भी प्राणी अपनी मृत्यु नहीं चाहता है, किन्तु अधिक से अधिक जीना चाहता है । फिर भी भवितव्यतावश मुत्यु से छुटकारा नहीं मिलता है । प्रत्येक संसारी प्राणी की मृत्यु अनिवार्य है। इसी प्रकार यह जीव सदा ही शिव (कल्याण अथवा निर्वाण) की इच्छा करता रहता है। फिर भी भवितव्यता के प्रतिकूल होनेपर उसका लाभ नहीं होता है । तात्पर्य यह है कि चाहने मात्रसे कुछ नहीं होता है । अनुकूल कारणोंके मिलनेपर ही कार्यकी सिद्धि होती है।
यह संसारी प्राणी बालक सदृश है । अर्थात् विवेक रहित है । भय और कामके वशीभूत है। मरण आदिके समय जो त्रास होता है वह भय है और सुखादि की अभिलाषाका नाम काम है । भय और कामके वशीभूत होकर यह अज्ञानी जीव
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