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श्री सुपार्श्व जिन स्तवन बाह्य सामग्री के सन्निधान मात्रसे सुखादि कार्यको निष्पत्ति सम्भव हो तो एक समान मंत्र-तन्त्रादि का अनुष्ठान करनेवाले तथा एक समान अन्य बाह्य सामग्रीको एकत्रित करनेवाले सब लोगोंको समान फल मिलना चाहिए । किन्तु ऐसा होता नहीं है । उनमेंसे किसीका प्रयत्न सफल होता है और दूसरोंका प्रयत्न निष्फल हो जाता है । इससे प्रतीत होता है कि जिनकी भवितव्यता अनुकूल होती है उनका प्रयत्न सफल हो जाता है और जिनकी भवितव्यता प्रतिकूल होती है उनका प्रयत्न निष्फल हो जाता है।
यहाँ भवितव्यता के प्रकरणमें पुरुषार्थका भी विचार कर लेना चाहिए। कार्योत्पत्तिमें भवितव्यता अन्तरंग (उपादान) कारण है और पुरुषार्थ बहिरंग (निमित्त) कारण है । किसी भी कार्यको उत्पत्ति दोनों कारणोंसे होती है । अनेकान्तवादी जैनदर्शनमें देव और पुरुषार्थ दोनोंका समन्वय किया गया है । देव और पुरुषार्थके सम्बन्धमें आप्तमीमांसामें कहा गया है
अबुद्धिपूर्वापेक्षायामिष्टानिष्टं स्वदेवतः।
बुद्धिपूर्वव्यपेक्षायामिष्टानिष्टं स्वपौरुषात् ॥११॥ अर्थात् जो इष्ट या अनिष्ट कार्य अबुद्धिपूर्वक घटित हो जाता है उसे अपने दैवकृत समझना चाहिए । यहाँ पौरुष गौण है और देव प्रधान है । और जो इष्ट या अनिष्ट कार्य बुद्धिपूर्वक घटित होता है उसे अपने पौरुषकृत समझना चाहिए। यहाँ दैव गौण है और पौरुष प्रधान है।
इसी विषयमें आचार्य अकलंकदेवने 'अष्टशती' में लिखा है- .
योग्यता कर्म पूर्व वा देवमुभयमदृष्टम् । पौरुषं पुनरिहचेष्टितं दृष्टम् । ताभ्यामर्थसिद्धिः । तदन्यतरापायेऽघटनात् ।
अर्थात् योग्यता अथवा पूर्व कर्म देव कहलाते हैं। ये दोनों अदृष्ट हैं । तथा इस जन्ममें किये गये पुरुष व्यापारको पौरुष कहते हैं । यह दृष्ट होता है । इन दोनोंसे अर्थकी सिद्धि होती है । और इन दोनोंमें से किसी एकके अभावमें अर्थ की सिद्धि नहीं हो सकती है।
यहाँ तृतीय श्लोकमें जो ‘अनीश्वरः' शब्द आया है उसका यह भी अर्थ निकलता है कि संसारी जीवोंके सुख-दुःखादिका कर्ता कोई ईश्वर नहीं है । ईश्वरवादियों का कहना है -
अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः ।
ईश्वरप्रेरिता गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा ॥ १. महाभारत, वनपर्व ३०१२
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