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श्री सुपार्श्व जिन स्तवन है। ऐसे शरीरमें अनुराग करना कोई बुद्धिमानीकी बात नहीं है । यदि अनुराग करना है तो मोक्षमें और मोक्षके कारणोंमें अनुराग करना चाहिए जिससे इस जीवका भला हो सके। शरीर पुद्गलरूप पर द्रव्य है । पर द्रव्यमें अनुरागको त्यागकर चेतन रूप स्वद्रव्यमें अनुराग करने में ही जीवका हित है। भगवान् सुपार्श्वनाथका यही हितकारी उपदेश है ।
अलच्यशक्तिर्भवितव्यतेयं
हेतुद्वयाविष्कृतकार्यलिङ्गा। अनीश्वरो जन्तुरहंक्रियातः
संहत्य कार्येष्विति साध्ववादीः ॥ ३ ॥ सामान्यार्थ-हे सुपार्श्व जिन ! आपने यह ठीक ही कहा है कि उपादान और निमित्त इन दोनों हेतुओं (कारणों) द्वारा उत्पन्न होनेवाले कार्यसे जिसका ज्ञान होता है ऐसी यह भवितव्यता दुर्निवार है। क्योंकि अहंकारसे पीड़ित यह प्राणी मंत्र-तंत्रादि सहकारी कारणोंको मिला कर भी सुखादि कार्योंके उत्पन्न करनेमें अनीश्वर (असमर्थ) है ।
विशेषार्थ-यहाँ इस बातपर विचार किया गया है कि हितका उपदेश मिलनेपर भी सभी लोग हितके मार्ग में प्रवृत्त क्यों नहीं होते हैं। इसका कारण भवितव्यता है, जो हितके मार्ग में प्रवृत्त नहीं होने देती है। अब इस बातपर विचार करना है कि भवितव्यता क्या है । जीवकी समर्थ उपादानशक्तिका नाम भवितव्यता है। जिसे हम योग्यता कहते हैं उसीका दूसरा नाम भवितव्यता है । द्रव्यकी समर्थ उपादानशक्ति कार्यरूपसे परिणत होनेके योग्य होती है। इसलिए समर्थ उपादानशक्ति, भवितव्यता और योग्यता ये तीनों एक ही अर्थको सूचित करते हैं। सामान्यरूपसे भवितव्यताको दैव, कर्म, अदृष्ट और भाग्य इन शब्दोंके द्वारा भी कहा जाता है । होनहार भी इसीको कहते हैं ।
अब प्रश्न यह है कि भवितव्यताका ज्ञान कैसे होता है । प्रत्यक्षसे तो भवितव्यताका ज्ञान संभव नहीं है। क्योंकि अतीन्द्रिय होनेसे वह हमारे प्रत्यक्ष का विषय नहीं हो सकती है। इसलिए यहाँ बतलाया गया है कि अनुमान प्रमाणसे भवितव्यताका ज्ञान होता है। अनुमान कई प्रकारका होता है । उनमेंसे कार्यलिंगजन्य अनुमानसे भवितव्यताका ज्ञान किया जाता है। कार्यको देखकर उसके कारणका ज्ञान करना कार्यलिंगजन्य अनुमान कहलाता है। जैसे पर्वतमें धूमको देखकर अग्निका ज्ञान करना कार्यलिंगजन्य अनुमान है । अग्नि धूमका कारण है और धूम अग्निका कार्य है । जब पर्वतमें धूम दृष्टिगोचर हो रहा है तो उसका
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