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स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदोपिका
भोगोंकी ओरसे उदासीन होकर आत्माके स्वाभाविक गुणोंको प्राप्त करने क प्रयत्न करे । भगवान् सुपार्श्वनाथका यही उपदेश है ।
अजङ्गमं जङ्गमनेययन्त्रं
यथा तथा जीवघृतं शरीरम् । बीभत्सु पूर्ति क्षयि तापकं च
स्नेहो वृथात्रेति हितं त्वमाख्यः ॥ २ ॥
सामान्यार्थ - जिस प्रकार अजंगम यंत्र जंगम पुरुषके द्वारा चलाया जाता है, उसी प्रकार जीवके द्वारा धारण किया हुआ यह शरीर भी अजंगम होनेसे जीवके द्वारा संचालित होता है । इसके साथ ही यह शरीर घृणित, दुर्गन्धयुक्त, नश्वर और संतापको उत्पन्न करने वाला है । इस प्रकार के शरीरमें स्नेह करना व्यर्थ है । श्री सुपार्श्व जिनने इस प्रकार की हितकारी बात बतलायी है ।
विशेषार्थ - यहाँ शरीर के स्वरूपका विचार किया गया है । जीवके द्वारा धारण किया गया यह शरीर अजंगम है । अजंगमका अर्थ है - बुद्धिपूर्वक परिस्पन्द व्यापारसे रहित । जो बुद्धिपूर्वक परिस्पन्द व्यापार करता है वह जंगम कहलाता है । अजंगमको जड़ या अचेतन और जंगमको चेतन कहते हैं । अजंगम स्वयं हलन चलन रूप व्यापार नहीं कर सकता है । अजंगम स्वयं गतिशील नहीं होता है और जंगम स्वयं गतिशील होता है । क्रीड़ाके लिए रचित हाथी, घोड़ा आदिका यंत्र अचेतन होनेसे बुद्धिपूर्वक दौड़ना, भागना आदि व्यापार नहीं कर सकता है । किन्तु यंत्ररूपी हाथी पर बैठा हुआ पुरुष उसका संचालन करता है, उसको जहाँ ले जाना चाहता है वहाँ ले जाता है ।
जीवके द्वारा धारण किया गया यह शरीर भी पुद्गलरूप जड़ पदार्थ से निर्मित होने के कारण अजंगम है । और अजंगम होनेसे वह गमन, आगमन आदि कार्योंमें स्वयं प्रवृत्ति नहीं कर सकता है । वह तो चेतन पुरुषके द्वारा चलना, ठहरना, हाथ-पैर चलाना आदि स्वव्यापार में प्रवृत्त किया जाता है । इसके अतिरिक्त इस शरीर में और भी अनेक दोष हैं । यद्यपि ऊपरसे देखने में यह शरीर अच्छा लगता है किन्तु इसके भीतर मल-मूत्र आदि घृणित पदार्थ भरे हुए हैं । अतः यह घृणास्पद है । यह दुर्गन्ध युक्त है । इसके मुख, गुदा, नाक आदि नव द्वारोंसे सदा दुर्गन्ध युक्त पदार्थ निकलते रहते हैं । यह विनश्वर है । जीवके द्वारा धारण किया गया शरीर कुछ समय तक ही रहता है और आयु की समाप्ति होने पर अथवा रोग, शस्त्रप्रहार आदिके द्वारा असमय में ही नष्ट हो जाता है । यह शरीर नाना प्रकारके दुःखोंका कारण होनेसे संताप उत्पन्न करने वाला भी
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