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( ७ ) श्री सुपार्श्व जिन स्तवन
स्वास्थ्यं यदात्यन्तिकमेष पुंसां स्वार्थो न भोगः परिभङ्गुरात्मा ।
तृषोsनुषङ्गान्न च तापशान्ति
रितीदमाख्यद् भगवान् सुपाश्वः ॥ १ ॥
सामान्यार्थ - जो आत्यन्तिक स्वास्थ्य है यही पुरुषोंका स्वार्थ है, क्षणभंगुर भोग स्वार्थ नहीं है । क्योंकि भोगोंमें तृष्णाकी अभिवृद्धि होनेसे ताप की शान्ति नहीं होती है । इस प्रकार भगवान् सुपार्श्वनाथने स्वार्थ और अस्वार्थका विवेक बतलाया है ।
विशेषार्थ- - सप्तम तीर्थंकरका नाम सुपार्श्व है । यह नाम सार्थक है । 1. सुपार्श्वका अर्थ है - शोभन हैं शरीरके उभय पार्श्वभाग जिनके । श्री सुपार्श्व -जिनके शरीरके दोनों पार्श्व भाग सुन्दर हैं, सर्वलक्षण सम्पन्न हैं । दोनों पार्श्व-भाग ही सुन्दर नहीं हैं, किन्तु उपलक्षणसे उनके शरीरके समस्त अवयव सुन्दर हैं। ऐसे श्री सुपार्श्व जिनने भव्य जोवोंके कल्याणके लिए स्वार्थ और अस्त्रार्थंका -भेद निम्न प्रकार बतलाया है ।
पुरुषोंका आत्यन्तिक स्वास्थ्य स्वार्थ है । कर्म रहित आत्मस्वरूपमें रहनेवाले - अनन्तज्ञानादि स्वस्थ कहलाते हैं और उनका जो भाव है उसे स्वास्थ्य कहते हैं । ...ऐसा स्वास्थ्य अविनश्वर होने के कारण आत्यन्तिक स्वास्थ्य कहलाता है | स्वार्थ. का मतलब है - अपना प्रयोजन । आत्माके अनन्त ज्ञानादि गुणोंकी जो स्वाभाविक ... परिणति है वही आत्माका स्वार्थ ( साध्य ) है | अतः अपना उत्थान या विकास ही आत्माका प्रयोजन या लक्ष्य है । इसके विपरीत क्षणभंगुर भोग आत्माका स्वार्थ . नहीं है, वह तो अस्वार्थ है । भोगका अर्थ है – वैषयिक सुखों की अनुभूति । यह वैषयिक सुखोंकी अनुभूति बिजलीकी चमकके समान क्षणभंगुर है । इसके अतिरिक्त इन्द्रिय विषयोंके सेवन से उत्तरोत्तर भोगाकांक्षा की वृद्धि होती है और तृष्णाकी अभिवृद्धि होनेके कारण शारीरिक तथा मानसिक ताप ( दुःख) की शान्ति कभी - नहीं हो सकती है । बुद्धिमान पुरुषों का प्रयास शाश्वत स्वभाव की सिद्धिके लिए होता है । किन्तु भोगोंका स्वभाव शाश्वत नहीं है और भोग तापशान्ति कारक भी नहीं हैं । अतः भोग अस्वार्थ है, हेय है, त्याज्य है । इस प्रकार आत्माके स्वार्थ और अस्वार्थ में भेद जानकर, प्रत्येक विवेकी पुरुषका कर्तव्य है कि वह विषय
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