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स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका
है, उनमें तो अनन्त गुण विद्यमान हैं । यहाँ विचारणीय यह है कि क्या कोई व्यक्ति उनके अनन्त गुणोंका कीर्तन या स्तुति कर सकता है । जन्मकल्याणक आदि
के समय अचिन्त्य शक्ति सम्पन्न तथा अवधिरूप विशिष्ट ज्ञानका धारक इन्द्र : भी श्री पद्मप्रभ भगवान के गुण समुद्रके एक अंश की भी स्तुति करनेमें समर्थ - नहीं हो सका है। ____ यहाँ स्तुतिकार अपनी निरभिमानता और अल्पज्ञता प्रकट करते हुए कहते हैं कि जब विशिष्ट ज्ञानी इन्द्र आपकी स्तुति करनेमें असमर्थ रहा है तब अल्पज्ञ • तथा स्तुति करनेमें अनभिज्ञ मैं आपकी स्तुति कैसे कर सकता हूँ । अर्थात् कदापि नहीं कर सकता हूँ । तब फिर स्तुति करनेका कारण क्या है ? इसका उत्तर यही है कि स्तुतिकार की श्री पद्मप्रभ जिनमें तीव्र भक्ति है । उस तीव्र भक्तिका ही यह प्रभाव है जो स्तुतिकारको इस प्रकारके स्तवन करनेके लिये प्रवृत्त करा रहा है। तात्पर्य यह है कि स्तुतिकार असमर्थ होते हुए भी तीव्र भक्तिवश ही भगवान्की स्तुति करनेमें प्रवृत्त हुआ है। यहाँ स्तुतिकारने अपनेको बाल कहकर अपनी निरभिमानता तथा अल्पज्ञता प्रकट की है ।
___ इस श्लोकके प्रथम चरण में 'अजस्य'के स्थानमें 'अजस्रम्' ऐसा एक पाठान्तर है । कुछ मुद्रित प्रतियोंमें 'अजस्रम्' इस पाठको प्रमुखता दी गई है। किन्तु ऐसा करना ठीक प्रतीत नहीं होता है । क्योंकि 'अजस्रम्' का अर्थ होता है-निरन्तर । अतः इन्द्र निरन्तर स्तुति करने में असमर्थ रहा है, ऐसा कहनेसे किसी विशेष अर्थ की सिद्धि नहीं होती है । इन्द्रने निरन्तर स्तुति की भी नहीं है । वह तो जन्मकल्याणक आदिके अवसर पर जब आया तब कुछ देर स्तुति करनेके बाद ही अपने स्थानको चला गया। इस श्लोकमें आखण्डल शब्दसे सौधर्म इन्द्रका ही उल्लेख किया गया है।
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