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स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका उसी प्रकार व्याप्त किया था जिस प्रकार पद्मरागमणिके पर्वतकी प्रभा अपने पार्श्वभागको व्याप्त कर लेती है।
विशेषार्थ-श्री पद्मप्रभ भगवान्के शरीरकी प्रभा प्रातःकालीन बालसूर्यको किरणोंकी कान्तिके समान रक्तवर्ण आभाको लिए हुए थी। प्रातःकाल जब सूर्योदय होता है तब उसका रंग लाल होता है। श्रीपद्मप्रभ जिनके शरीरका वर्ण भी लाल है । प्रातःकालीन सूर्यकी किरणोंसे जो प्रभा निकलती है वह रक्तिमा (लालिमा) को लिए हए होती है। इसी प्रकार श्री पदमप्रभ जिनके शरीरकी किरणोंसे जो प्रभा निकलती है वह भी रक्तिमाको लिए हुए है। जब भगवान् समवसरणमें विराजमान होते हैं तब उनके शरीरकी रक्त किरणों के प्रसारसे देवों
और मनुष्योंसे भरी हई समवसरण सभा व्याप्त हो जाती है। उस समय समव• सरणकी शोभा दर्शनीय होती है। जिस प्रकार पद्मरागमणिका (रक्त वर्णवाला) कोई पर्वत हो और उसकी प्रभा उसके पार्श्वभागको व्याप्त कर रही हो, उसी प्रकार श्री पद्मप्रभ जिनके शरीरके किरणोंकी प्रभा समवसरण सभाको व्याप्त कर लेती है। उस सभामें उपस्थित समस्त जीव समूह श्री पद्मप्रभ जिनके समान लालिमाको लिए हुए प्रतीत होने लगता है । समवसरण सभामें केवल देव और मनुष्य ही उपस्थित नहीं रहते हैं, किन्तु जन्मजात वैर रखनेवाले गाय और सिंह जैसे पशु भी वहाँ जाते हैं और भगवान्की दिव्यध्वनिको सुनकर जन्मजात वैर'भावको भूल जाते हैं । समवसरणका अर्थ है-जहाँ किसी भेदभावके बिना सबको समान रूपसे शरण (आश्रय) मिले ।
इस श्लोकके तृतीय चरणमें 'प्रभा वा' के स्थानमें 'प्रभावत्' ऐसा भी एक पाठ है । यद्यपि 'प्रभा वा' और 'प्रभावत्' इन दोनों शब्दोंका अर्थ एक ही है, फिर भी यहाँ 'प्रभा वा' शब्द अधिक उपयुक्त है। क्योंकि 'शैलस्य प्रभा वा स्वसानुमालिलेप' इस वाक्यमें प्रभा शब्द आलिलेप क्रियाका कर्ता है और वा शब्द यथा शब्दके अर्थका प्रतिपादक है । नभस्तलं पल्लवयन्निव त्वं
सहस्रपत्राम्बुजगर्भचारैः । पादाम्बुजैः पातितमारदो
भूमौ प्रजानां विजहर्थ भूत्यै ॥ ४॥ सामान्यार्थ-हे पद्मप्रभ जिन ! कामदेवके गर्वको नष्ट करनेवाले आपने सहस्रदल कमलोंके मध्यमें चलनेवाले अपने चरण-कमलोंके द्वारा आकाशतलको पल्लवोंसे व्याप्त जैसा करते हुए प्रजाजनोंकी विभूति ( कल्याण ) के लिए इस भूतल पर विहार किया था।
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