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प्रस्तावना
स त्वमेवासि निर्दोष युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् । अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धेन न बाध्यते ॥ ६ ॥
इस कारिका द्वारा अर्हन्त में सर्वज्ञत्व सिद्ध किया है । अर्हन्त ही सर्वज्ञ है, क्योंकि वे निर्दोष (रागादि दोषों से रहित ) और युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् हैं। उनके द्वारा अभिमत इष्ट तत्त्व प्रत्यक्षादि किसी प्रमाणसे बाधित न होनेके कारण अर्हन्तके वचन युक्ति और शास्त्रसे अविरोधी हैं । अतः अर्हन्तमें ही सर्वज्ञत्व सिद्ध होता है । जीवसिद्धि
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आचार्यं समन्तभद्रने 'जीवसिद्धि' नामक एक स्वतंत्र ग्रन्थकी रचना की थी, ऐसा उल्लेख पाया जाता है । किन्तु वह ग्रन्थ वर्तमान में उपलब्ध नहीं है । उक् ग्रन्थ में विस्तारसे जीवकी सिद्धि की गयी होगी । समन्तभद्र ने आप्तमीमांसा में भीजीवशब्दः सबाह्यार्थः संज्ञात्वाद् हेतुशब्दवत् ।
इस वाक्यके द्वारा जीवकी सिद्धि की है । जीव शब्द अपने बाह्य अर्थ सहित है, क्योंकि वह एक संज्ञा शब्द है । जो संज्ञा शब्द होता है उसका बाह्य अर्थ भी पाया जाता है, जैसे हेतुशब्द । जिस प्रकार हेतुशब्दका धूमादिरूप बाह्य अर्थ पाया जाता है, उसी प्रकार जीवशब्दका भी जीवशब्दसे भिन्न चेतनरूप बाह्य अर्थ विद्यमान है । तात्पर्य यह है कि जीवशब्दका चेतनरूप वाच्य अर्थ अवश्य है । इस प्रकार संक्षेपमें जीव तत्त्वकी सिद्धि की गयी है । द्रव्यमें उत्पादादित्रय की सिद्धि
आचार्य समन्तभद्रके पहले आचार्य कुन्दकुन्द और गृद्धपिच्छने द्रव्यको केवल सामान्यरूपसे उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप बतलाया था । उसी बातका युक्ति और दृष्टान्तके द्वारा विशेषरूप से प्रतिपादन समन्तभद्र की अपनी विशेषता है । उन्होंने आप्तमीमांसा में -
नसामान्यात्मनोदेति न व्येति व्यक्तमन्वयात् । व्येत्युदेति विशेषात्ते सहैकत्रोदयादि सत् ॥ ५७ ॥
इस कारिका द्वारा बतलाया है कि द्रव्यका सामान्यरूपसे न तो उत्पाद होता है और न विनाश । किन्तु उत्पाद और विनाश विशेषरूपसे ही होता है । अर्थात् द्रव्यका उत्पाद और विनाश नहीं होता है । उत्पाद और विनाश केवल पर्यायका ही होता है । तथा विनष्ट और उत्पन्न पर्यायोंमें द्रव्यका अन्वय बराबर बना रहता है । इसके अनन्तर —
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"घटमौलि सुवर्णार्थी" तथा " पयोव्रतो न दध्यत्ति "
इत्यादि दो कारिकाओं द्वारा उक्त बातका दृष्टान्तपूर्वक समर्थन किया गया है ।
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