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स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका
या प्रादुरासीत् प्रभुशक्तिभूम्ना भव्याशयालीन कलङ्कशान्त्यै
महामुनिर्मुक्तघनोपदेहो
यथारविन्दाभ्युदयाय भास्वान् ।। ३ ।।
सामान्यार्थ -- घातिया कर्मरूप सघन आवरणसे मुक्त तथा महामुनि भगवान् अजितनाथ भव्य जीवोंके हृदयोंमें संलग्न कलंककी शान्तिके लिए जगत् के उपकार करने में समर्थ शक्ति (वाणी ) के माहात्म्य विशेषसे सम्पन्न होकर उसी प्रकार प्रकट हुए थे जिसप्रकार मेघों के आवरणसे मुक्त सूर्य कमलों के विकास के लिए प्रकाशमय शक्ति से सम्पन्न होकर प्रकट होता है ।
विशेषार्थ -- -- जब तक आत्माके ऊपर घातिया कर्मोंका सघन आवरण पड़ा रहता है तब तक उसके ज्ञान आदि गुणोंका पूर्ण विकास नहीं हो पाता है । भगवान् अजितनाथने जब तेरहवें गुणस्थानमें पहुँचकर परम शुक्लध्यानके द्वारा चार घातिया कर्मोंका पूर्ण विनाश कर दिया तब वे केवलज्ञानसे सम्पन्न हो गये । वे पहले मुनि थे किन्तु अब गणधरादि मुनियोंमें प्रधान होनेके कारण अथवा केवलज्ञानी होनेके कारण महामुनि कहलाये । ऐसे अजितनाथ भगवान् भव्य जीवों के हृदयों में स्थित कर्मरूप कलंक के विनाशके लिए प्रादुभूत हुए थे 1
प्रत्येक संसारी जीव कर्म कलंकसे कलंकित रहता है । कर्म दो प्रकारका है -- भावकर्म और द्रव्यकर्म । राग, द्वेष, मोह आदि जीवके विकारी भाव भावकर्म हैं और ज्ञानावरणादि आठ कर्म द्रव्यकर्म कहलाते हैं । ये दोनों कर्म चैतन्यरूप आत्मस्वरूपके साथ संलग्न रहते हैं और इनके संयोगसे आत्माका स्वरूप मलिन रहता है । भव्य जीवोंका कल्याण तभी हो सकता है जब इस कर्म कलंकका विनाश हो जावे । अतः श्री अजित जिन केवलज्ञानको प्राप्त कर लोकोपकारक दिव्यध्वनिके माहात्म्य विशेषसे भव्य जोवोंके हृदयों में विद्यमान अज्ञान अन्धकारको दूर करके उनके आत्मविकासके कारण हुए थे । जगत्के उपकारक होनेसे भगवान् प्रभु कहलाते हैं । दिव्यध्वनिरूप वाणी उनकी शक्ति है जिसके माहात्म्यसे वे जीवादि तत्त्वोंका प्ररूपण कर के भव्य जीवोंका उपकार करते हैं । वे अपनी दिव्यध्वनिके द्वारा भव्य जीवोंका अभ्युदय (आत्म विकास ) उसी प्रकार करते हैं जिस प्रकार मेघोंके आवरणसे रहित सूर्य अपने प्रखर प्रतापके द्वारा कमलोंका अभ्युदय ( विकास ) करता है ।
येन प्रणीतं पृथु धर्म तीर्थं ज्येष्ठं जनाः प्राप्य जयन्ति दुःखम् ।
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