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स्वयम्भू स्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका
का लोप (अभाव ) मानने पर दूसरेका भी अभाव हो जायेगा और तब यह तत्त्व निःस्वभाव हो जायेगा ।
विशेषार्थ - प्रत्येक जीवादि तत्त्व द्रव्यपर्यायात्मक है । पर्यायार्थिकन यकी दृष्टिसे जीव अनेकरूप है और द्रव्यार्थिकनयकी दृष्टिसे एकरूप है । किसी मानव के विषय में विचार करने पर ज्ञात होता है कि पर्यायार्थिकनयकी दृष्टिसे उसका अन्तरंग स्वरूप सुख, दुःख, हर्ष, विषाद आदिके भेदसे अनेकरूप है और उसका बाह्यरूप बाल, कुमार, युवा, वृद्ध आदिके भेदसे अनेकरूप है । किन्तु द्रव्यार्थिकनकी दृष्टिसे उसकी सुख-दुःखादि अवस्थाओं में तथा बालकुमारादि अवस्थाओंमें 'यह वही है' ऐसी एकत्वकी प्रतीति होने से वह एकरूप है । तात्पर्य यह है कि प्रत्येक तत्त्व अनेक और एकके भेदसे द्विविधरूप है और उसको ग्रहण करनेवाला भेदज्ञान और अन्वयज्ञान अबाधित होनेके कारण निश्चय ही सत्य है ।
बौद्धों की ऐसी मान्यता है कि पर्याय हो वास्तविक तत्त्व है, द्रव्य तो अनादिकालीन अविद्या द्वारा कल्पित होनेसे अवास्तविक है । क्षणिक चित्त आदि तत्त्वों में पर्यायोंकी एक सदृश सन्तति चालू रहनेके कारण केश, नख आदिकी तरह भ्रमवश उस सन्ततिमें एकत्वकी प्रतीति हो जाती है । इस प्रकार बौद्धों के अनुसार भेदज्ञान ही सत्य है और अन्वयज्ञान मिथ्या है |
सांख्यकी मान्यता है कि जीवादि द्रव्य ही वास्तविक है और उसकी सुखदुःखादि पर्यायें औपाधिक ( उपाधिजन्य ) होनेसे अवास्तविक हैं । जिस प्रकार स्फटिकमणि स्वभावसे स्वच्छ है किन्तु जपाकुसुमरूप उपाधिके संयोग से उसमें लालिमा आ जाती है, उसी प्रकार प्रकृतिके संयोग से पुरुषमें सुख-दुःखादि प्रतिभासित होने लगते हैं । यथार्थ में सुख-दुःखादि पुरुष के धर्म ( पर्यायें ) न होकर प्रकृति ही धर्म हैं ।
कहना है कि जीव द्रव्यमें अनेकत्व उपचारसे होता है । क्योंकि जीवसे अत्यन्त भिन्न सुख-दुःखादि पर्यायोंका अथवा ज्ञानादि गुणोंका जीवके साथ समवाय सम्बन्ध होने के कारण जीवमें अनेकत्वका व्यवहार होता है । नैयायिकों के अनुसार आत्मा पृथक् है और उसके ज्ञान, सुखादि गुण पृथक् हैं । अतः जीवमें एकत्वका व्यवहार वास्तविक है और अनेकत्वका व्यवहार अवास्तविक है ।
उक्त एकान्तवादियोंका कथन युक्ति संगत नहीं है । केवल पर्यायकी सत्ता मानना अथवा केवल द्रव्यको सत्ता मानना और पर्यायोंको औपाधिक मानना तथा द्रव्य और पर्यायोंकी पृथक्-पृथक् सत्ता मानकर द्रव्यके साथ पर्यायोंका समवाय सम्बन्ध मानना और द्रव्यमें उपचारसे अनेकत्वकी कल्पना करना, ये सब एकान्त मत किसी भी प्रमाणसे सिद्ध नहीं होते हैं । इसके विपरीत द्रव्यमें अबाध भेदज्ञानसे
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