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श्री सुमति जिन स्तवन रूपसे माना गया क्षण ( तत्त्व ) क्षणिक होनेसे कार्योत्पत्तिके पहले हो नष्ट हो जाता है । अर्थात् कारणका कार्यके साथ किसी प्रकारका अन्वय नहीं बनता है। इसी प्रकार कार्यरूपसे माना गया क्षण कारणके प्रथम क्षणमें ही नष्ट हो जानेसे आत्मलाभ न कर सकनेके कारण असत् ही रहेगा। क्योंकि यहाँ कारण कार्यरूपमें परिणत नहीं होता है। जो खरविषाणके समान सर्वथा असत् है वह न तो किसीका कारण हो सकता है और न किसीका कार्य ही हो सकता है। यदि असतको कारण या कार्य माना जायेगा तो अतिप्रसंग दोष प्राप्त होगा। फिर तो खरविषाण से किसी भी वस्तुकी उत्पत्ति सम्भव हो जायेगी।
__ इमी प्रकार नित्यकान्तमें भी वस्तुकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है। क्योंकि जो तत्त्व सर्वथा नित्य है उसमें कभी भी कोई विक्रिया नहीं होती है। वह तो सदा अविकारी रहेगा और ऐसा अविकारी तत्त्व न तो किसीका कारण हो सकता है और न किसीका कार्य हो सकता है। इस प्रकार नित्यकान्तमें कार्यकारण सम्बन्धके अभावके कारण किसी भी वस्तुको उत्पत्ति सम्भव नहीं है। एकान्त मतमें उत्पत्तिकी तरह ज्ञप्ति भी नहीं बनती है । ज्ञप्तिका अर्थ है जानना। जब हम किसी वस्तुको जानते हैं तो हमारा जानना ज्ञप्ति कहलाता है। प्रमाण पदार्थका ज्ञापक होता है । किन्तु जब एकान्त मतमें पदार्थकी उत्पत्ति ही सम्भव नहीं है तब प्रमाणके द्वारा उसकी ज्ञप्ति कैसे होगी। इस प्रकार वस्तुकी उत्पत्तिके अभावमें कर्ता, कर्म, करण आदि कारकोंकी स्थिति भी नहीं बनती है। जब कुम्भकार घटको बनाता है तभी कुम्भकार कर्ता और घट कर्म कहलाते हैं। घट की उत्पत्तिके अभावमें कर्ता, कर्म आदिकी व्यवस्था कैसे बनेगी। इस प्रकार एकान्तवादियोंके मतमें क्रिया और कारकके स्वरूपको सिद्धि नहीं होती है। वह तो भगवान् सुमतिनाथ द्वारा प्रतिपादित अनेकान्त शासनमें ही सम्भव है ।
अनेकमेकं च तदेव तत्त्वं
भेदान्वयज्ञानमिदं हि सत्यम् । मृषोपचारोऽन्यतरस्य लोपे
तच्छेषलोपोऽपि ततोऽनुपाख्यम् ॥ २॥
सामान्यार्थ-हे सुमति जिन ! आपने सुयुक्तियोंके द्वारा जिस जीवादि तत्त्वको प्रतिष्ठापित किया है वह अनेकरूप तथा एकरूप है। क्योंकि अनेकरूपोंमें जो भेदज्ञान होता है और एकरूपमें जो अन्वयज्ञान होता है वह सत्य है । भेद और अभेदमेंसे किसी एकको उपचारसे मान ना मिथ्या है । क्योंकि दोनोंमेंसे किसी एक
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