________________
( ५ ) श्री सुमति जिन स्तवन अन्वर्थसंज्ञः सुमतिर्मुनिस्त्वं स्वयं मतं येन सुयुक्तिनीतम् ।
यतश्च शेषेषु मतेषु नास्ति सर्वक्रियाकारकतत्त्वसिद्धिः
॥ १ ॥
सामान्यार्थ - हे सुमति मुनि ! आपका सुमति नाम सार्थक है । क्योंकि आपने जिस तत्त्वको माना है उसे सुयुक्तियोंसे प्रतिष्ठित किया है । और आपके मतसे भिन्न जो अन्य एकान्त मत हैं, उनमें सम्पूर्ण क्रियाओं तथा कर्ता, कर्म, करण आदि कारकों के तत्त्वकी सिद्धि नहीं होती है ।
विशेषार्थ - सर्वोत्कृष्ट मतिके धारक होनेके कारण पाँचवें तोर्थङ्करका सुमति यह नाम सार्थक है । वे यथा नाम तथा गुणवाले हैं । वे मुनि हैं, मुनि भी सामान्य नहीं, किन्तु केवलज्ञानी मुनि हैं । श्री सुमति जिनने स्वयं जिस अनेकान्तात्मक तत्त्वको माना है उसे अकाट्य युक्तियों और प्रमाणों द्वारा सिद्ध किया है । जीवादि तत्व सत्-असत्, एक-अनेक, नित्य-अनित्य इत्यादि प्रकार से अनेक धर्मात्मक हैं । जिस समय जिस धर्मके कथन करनेकी विवक्षा होती है उस समय वह धर्म प्रधान हो जाता है और शेष अविवक्षित धर्म गौण हो जाते हैं । इस प्रकार श्री सुमति जिनमे अनेकान्तात्मक वस्तु तत्त्वकी सिद्धि की है ।
इसके विपरीत जो सांख्य, बौद्ध, नैयायिक, वैशेषिक आदि मत हैं उनमें समस्त क्रियाओं तथा कारकोंके स्वरूपकी सिद्धि नहीं होती है । यहाँ क्रिया और कारकको दृष्टान्त द्वारा समझाया जाता है । कुम्भकारः चक्रेण घटं करोति । कुम्भकार चक्र द्वारा घट बनाता है । यहाँ करोति यह क्रिया है । कुम्भकार कर्ता कारक है । घट कर्म कारक है तथा चक्र करण कारक है । इसी प्रकार सम्प्रदान, अपादान, सम्बन्ध और अधिकरण ये चार कारक और होते हैं । कुल सात कारक होते हैं । जानता है, पढ़ता है, खाता है, जाता है, काटता है, इत्यादि प्रकार से क्रियाएँ भी कई प्रकार की होती हैं ।
यहाँ श्री सुमति जिनने यह बतलाया है कि एकान्तवादियोंके मत में क्रियाओं और कारकों के स्वरूपकी सिद्धि (उत्पत्ति और ज्ञप्ति) नहीं हो सकती है । बौद्धों द्वारा अभिमत क्षणिकान्तमें वस्तुकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है । क्योंकि कारण
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org