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स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका
इहाप्यमुत्राप्यनुबन्धदोषवित्
कथं सुखे संसजतीति चाब्रवीत् ॥ ४ ॥
सामान्यार्थ - श्री अभिनन्दन जिनने जगत्को यह भी बतलाया था कि अनुबन्ध ( आसक्ति ) के दोषसे विषय सेवनमें अति लोलुपी हुआ भी यह मानव शासन आदिके भयसे इस लोकमें परस्त्रीसेवन आदि दुष्कृत्यों में प्रवृत्ति नहीं करता है । तो फिर इस लोक और परलोक दोनोंमें ही विषयासक्तिके दोषोंको जानने वाला मनुष्य कैसे विषय सुखमें आसक्त हो जाता है, यह आश्चर्य की बात है ।
विशेषार्थ - विषयासक्तिरूप दोष के कारण विषय सेवनमें अत्यन्त आसक्त रहने वाला मनुष्य भी इस लोक में शासन आदिके भयसे परस्त्री सेवन आदि अकार्यों में प्रवृत्त नहीं होता है । किसी की हिंसा करना, चोरी करना, परस्त्रीगमन करना आदि अनेक ऐसे कार्य हैं जिन्हें दुष्कर्म कहा जाता है । विषयासक्त मानव नाना प्रकारके दुष्कर्मोंके करनेमें यथासंभव प्रवृत्ति करता है । फिर भी जब वह यह जानता है कि इस दुष्कर्मको करनेके कारण शासन दण्डित करेगा, समाज उसका बहिष्कार करेगा और परिजन भी उसे बुरी दृष्टिसे देखेंगे तब वह उस दुष्कृत्यको नहीं करता है । फिर जो मनुष्य यह जानता है कि विषयासक्ति के कारण इस लोक में नाना प्रकार के दुःख भोगना पड़ते हैं और परलोकमें भी नरक, तिर्यञ्च आदि गतियों में अनेक प्रकारके दुःखोंको भोगना पड़ता है, तो वह क्षणिक तृप्तिदायक विषय सुखमें कैसे आसक्त हो जाता है यह एक महान् आश्चर्य और खेद की बात है ।
उपर्युक्त कथनका निष्कर्ष यह है कि दोनों लोकोंमें विषयासक्तिके दुष्प -- रिणामोंको जानकर प्रत्येक मानवको विषयासक्तिसे विरक्त रहनेका प्रयत्न करना चाहिए | विषय सुख में प्रवृत्तिका कारण विषयासक्तिके दोषोंको न जानना ही है । अतः प्रत्येक मानवको विषयासक्तिके दोषोंको जानना आवश्यक है । इस प्रकार श्री अभिनन्दन जिनने जीवोंको सन्मार्ग पर चलने को प्रेरणा दी थी ।
स चानुबन्धोऽस्य जनस्य तापकृत् तृषोऽभिवृद्धि : सुखतो न च स्थितिः ।
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इति प्रभो लोकहितं यतो मतं
ततो भवानेव गतिः सतां मतः ॥ ५ ॥ ( २० ) सामान्यार्थ - हे प्रभो ! वह अनुबन्ध ( विषयासक्ति ) और तृष्णाकी अभिवृद्धि ये दोनों ही इस विषयासक्त मनुष्यको संताप उत्पन्न करनेवाले हैं ।
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