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श्री सुमति जिन स्तवन न अनेक है, अर्थात् सब स्वभावोंसे सर्वथा च्युत है, तो यहाँ प्रश्न होगा कि ऐसी वस्तुका साधक कोई प्रमाण है या नहीं। यदि उसका साधक कोई प्रमाण है तो ऐसा मानने में स्ववचनबाधित दोष आता है । क्योंकि प्रमाण भी सर्वस्वभावच्युत होगा, तब वह किसीका साधक कैसे हो सकता है। यदि उसका साधक कोई प्रमाण नहीं है तो 'वस्तु सर्वस्वभावच्युत' है, यह कथन स्वतः निरस्त हो जाता है। और यदि कथनमात्रसे वस्तुकी सिद्धि होने लगे तो फिर कोई वस्तु ऐसी नहीं मिलेगी जिसकी सिद्धि न हो सके । इस प्रकार समस्त एकान्तवाद स्ववचनबाधित है। श्री सुमति जिनका अनेकान्तवाद हो ऐसा है जो प्रमाण सिद्ध होनेसे सर्वथा अबाधित है। न सर्वथा नित्यमुदेत्यपैति
न च क्रियाकारकमत्र युक्तम् । नैवासतो जन्म सतो न नाशो
दीपस्तमःपुद्गलभावतोऽस्ति ॥४॥ सामान्यार्थ—सब प्रकारसे नित्य पदार्थ न उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है। उसमें क्रिया-कारक भाव भी नहीं बनता है। इसी प्रकार जो सर्वथा असत् है उसका कभी जन्म नहीं होता है और सत्का कभी विनाश नहीं होता है । दीपक भी बुझजाने पर अन्धकाररूप पुद्गल पर्यायके रूपमें विद्यमान रहता है ।
विशेषार्थ-अनेकान्त शासनमें प्रत्येक पदार्थ द्रव्यकी अपेक्षासे नित्य है और पर्यायकी अपेक्षासे अनित्य है। इसके विपरीत सांख्य आदि कुछ एकान्तवादी पदार्थको सर्वथा नित्य मानते हैं। सर्वथा नित्यका अर्थ होता है कि जिस प्रकार वह द्रव्यकी अपेक्षासे नित्य है उसी प्रकार पर्यायकी अपेक्षासे भी नित्य है । ऐसा नित्य पदार्थ न तो उत्पन्न होता है और न नाशको प्राप्त होता है । उत्पन्न होनेका अर्थ है नवीन आकारको ग्रहण करना । और नष्ट होनेका अर्थ है पूर्व आकारका परित्याग करना । किन्तु सर्वथा नित्य पदार्थमें ये दोनों बातें नहीं बन सकती हैं। क्योंकि उक्त दोनों बातें स्वीकार करने पर वह सर्वथा नित्य नहीं रहेगा, कथंचित् अनित्य भी हो जायेगा। तब तो उसको कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य मानना ही पड़ेगा।
सर्वथा नित्य पदार्थमें क्रियाकी योजना तथा कारककी योजना भी नहीं बन सकती है। चलना, ठहरना आदि क्रिया कहलाती हैं और क्रियाको करनेवाला कारक कहलाता है। यदि सर्वथा नित्य वस्तुमें गमन क्रिया होती है तो सदा गमन क्रिया ही होती रहेगी और स्थगन क्रिया कभी भी नहीं होगी। यदि स्थगन
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