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( ४ ) श्री अभिनन्दन जिन स्तवन गुणाभिनन्दादभिनन्दनो भवान्
दयावधू क्षान्तिसखीमशिश्रियत् । समाधितन्त्रस्तदुपोपपत्तये
द्वयेन नैर्ग्रन्थ्यगुणेन चायुजत् ॥ १॥ सामान्यार्थ-हे अभिनन्दन जिन ! आप गुणोंकी अभिवृद्धि के कारण होनेसे 'अभिनन्दन' इस सार्थक नामको धारण करनेवाले हैं। आपने क्षमा है सखी जिसकी ऐसी दयारूप वधूको अपने आश्रयमें लिया है। आपका प्रधान लक्ष्य समाधि (ध्यान) को प्राप्त करना है। अतः आप उसकी सिद्धि के लिए दोनों प्रकार के अपरिग्रहरूप गुणसे युक्त हुए हैं।
विशेषार्थ-चतुर्थ तीर्थङ्करका अभिनन्दन यह नाम सार्थक है । अभिनन्दनका अर्थ है-जिसके द्वारा ज्ञानादि अन्तरंग गुणोंकी तथा लक्ष्मी आदि बहिरंग गुणोंकी चतुमुखी वृद्धि हो । श्री अभिनन्दन जिनके उत्पन्न होते ही समस्त जीवोंके ज्ञान, सुख, सम्पत्ति आदि गुणोंकी अभिवृद्धि होने लगी थी। इस कारण उनका नाम अभिनन्दन प्रसिद्ध हो गया। श्री अभिनन्दन जिनने दया और क्षमा दोनोंको अपनाया था। दूसरे जीवोंके दुःख दूर करने रूप शुभराग मिश्रित भावको दया कहते हैं । और क्रोधादि कषायोंके अभावमें होनेवाली आत्माकी शान्तिरूप परिणतिको क्षमा कहते हैं। श्री अभिनन्दन जिनने गृहस्थावस्था दयाको अपनाया और मुनि अवस्थामें उत्तम क्षमारूप वीतराग परिणतिको प्राप्त किया । __उनका प्रधान लक्ष्य समाधिको प्राप्त करना था । यहाँ समाधिका अर्थ धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान दोनों है। अतः उन्होंने समाधिको प्राप्त करनेके लिए मिथ्यात्वादि चौदह प्रकारके अन्तरंग परिग्रहको और धन-धान्यादि दस प्रकारके बहिरंग परिग्रहको छोड़कर नैनन्थ्य गुणको अपनाया था। परिग्रह व्यग्रताका कारण है । अतः परिग्रही जीवोंके एकाग्रतारूप ध्यान नहीं बन सकता है। धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान ये दोनों ध्यान मोक्षके हेतु हैं । धांध्यान परम्परया मोक्षका कारण है और शुक्लध्यान साक्षात् मोक्षका कारण है । यह भी कहा जा सकता हैं कि शुक्लध्यान कर्मक्षयका साक्षात् कारण है और शुक्लध्यानकी प्राप्ति सम्पूर्ण परिग्रहके त्यागके बिना सम्भव नहीं है । यही कारण है कि श्री अभिनन्दन जिन
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