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श्री अजित जिन स्तवन गानं ह्रदं चन्दनपङ्कशीतं
गजप्रवेका इव धर्मतप्ताः ॥४॥ सामान्यार्थ-भगवान् अजितनाथने सर्वोत्कृष्ट और विस्तृत धर्म तीर्थका प्रणयन किया था । भव्य जीव उस धर्म तीर्थको प्राप्त कर संसार परिभ्रमण जन्य दुःखको उसी प्रकार जीत लेते हैं जिसप्रकार सूर्यके आतापसे संतप्त बड़े-बड़े हाथी चन्दनके लेपके समान शीतल गंगा नदीके अगाध जलमें प्रवेश करके सूर्यके संतापजन्य दुःखको जीत लेते हैं।
विशेषार्थ-भगवान् अजितनाथने धर्मतीर्थका प्रकाशन किया था। तीर्थ घाटको कहते हैं । नदीके किनारे घाट बने रहते हैं। स्नानार्थी लोग घाटके आश्रयसे स्नानादि क्रियाओंको सरलतासे सम्पन्न कर लेते हैं। इसी प्रकार जो भव्य जीव संसार समुद्रको पार करना चाहते हैं वे धर्म तीर्थका आश्रय लेकर सरलतापूर्वक संसार समुद्रको पार कर सकते हैं। धर्म सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयरूप अथवा उत्तमक्षमादि दक्षलक्षणरूप होता है। संसार समुद्रसे पार उतरनेके लिए घाटके समान होनेके कारण धर्मको धर्मतीर्थ कहा गया है । अथवा मोक्षमार्गरूप तथा उत्तमक्षमादिरूप धर्मका प्रतिपादक जो आगम है उसको भी धर्मतीर्थ कहा जाता है । श्री अजित जिनका धर्म तीर्थ समस्त धर्म तीर्थों में प्रधान होनेके कारण सर्वोत्कृष्ट है तथा सम्पूर्ण पदार्थों को विषय करनेके कारण विस्तृत है । जिस प्रकार केवलज्ञान सम्पूर्ण पदार्थों को विषय करता है उसी प्रकार आगमज्ञान या श्रुतज्ञान भी सम्पूर्ण पदार्थोको विषय करता है। दोनोंमें भेद केवल प्रत्यक्ष और परोक्षकी दृष्टिसे है। केवलज्ञान प्रत्यक्ष रूपसे उनको विषय करता है और श्रुतज्ञान परोक्ष रूपसे उनको विषय करता। संसारी जीव चारों गतियोंमें और चौरासी लाख योनियोंमें परिभ्रमण करता हुआ, जन्म, जरा, मरण आदिके दुःखोंको भोगता रहता है। किन्तु भव्य जीव इस धर्म तीर्थका आश्रय लेकर संसार परिभ्रमण जन्य दुःखको उसी प्रकार जीत लेते हैं जिस प्रकार ग्रीष्म ऋतुमें सूर्यके आतापसे पीड़ित बड़े-बड़े हाथी चन्दनके लेपके समान शीतल गंगा नदीके अगाध जलमें प्रवेश करके सूर्यके आताप जन्य दुःखको जोत लेते हैं ।
स ब्रह्मनिष्ठः सममित्रशत्रु
विद्याविनिर्वान्तकषायदोषः । लब्धात्मलक्ष्मीरजितोऽजितात्मा
जिनश्रियं मे भगवान विधत्ताम् ॥५॥ (१०) सामान्यार्थ--आत्मस्वरूपमें अवस्थित, मित्र और शत्रुमें समत'भाव धारण
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