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प्रस्तावना
का बहुत प्रचार हुआ है । किन्तु इस बात को बहुत कम लोग जानते हैं कि गाँधोजीसे सत्रह सौ वर्ष पहले उत्पन्न हए आचार्य समन्तभद्रने वास्तविक सर्वोदयके सिद्धान्तको जनताके समक्ष रखते हुए भगवान् महावीरके तीर्थ को सर्वोदय तीर्थ कहा था' । सर्वोदयका अर्थ है कि जिसके द्वारा सबका उदय, अभ्युदय या उन्नति हो । किसी भी तीर्थ को सर्वोदयी होनेके लिए आवश्यक है कि उसका आधार समता और अहिंसा हो । भगवान् महावीरका शासन ऐसा ही था। उनके शासन में जाति, कुल, वर्ण आदिके भेदभावके बिना सब मनुष्यों को ही नहीं किन्तु प्राणिमात्र को धर्मसाधन करने तथा आत्म विकास करनेका समान अवसर प्राप्त है । अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहके सिद्धान्तों द्वारा सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों में भी सर्वोदयके सिद्धान्तका प्रतिपादन किया गया है । इन सब बातों के अतिरिक्त सर्वोदयके लिए और क्या चाहिए ।
इस प्रकार यहाँ आचार्य समन्तभद्र की कुछ दार्शनिक उपलब्धियों का संक्षेप में दिग्दर्शन कराया गया है। वास्तव में उन्होंने एक युगपुरुषके रूपमें दर्शनके क्षेत्र में अनेक उपलब्धियों को प्रस्तुत करके अपने उत्तरवर्ती दार्शनिकोंके लिए मार्ग प्रशस्त कर दिया था। यही कारण है कि आचार्य समन्तभद्रने जिन बातों को सूत्ररूपमें कहा था उन्हीं बातोंका उनके उत्तरवर्ती अकलंकदेव, विद्यानन्द आदि आचार्योंने उनकी वाणी को हृदयंगम करके भाष्य या टीकाके रूपमें विस्तारसे विवेचन किया है। स्वयम्भूस्तोत्रके संस्कृत टीकाकार प्रभाचन्द्र :
स्वयम्भूस्तोत्र पर आचार्य प्रभाचन्द्रको संस्कृत टीका उपलब्ध है । यह टोका श्री पं० पन्नालाल जी द्वारा सम्पादित तथा हिन्दी टीका सहित प्रकाशित स्वयम्भूस्तोत्रमें संगृहीत है । यहाँ यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है कि इस स्तोत्र के संस्कृत टीकाकार आचार्य प्रभाचन्द्र कौन हैं । इतना तो निश्चित है कि प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रके रचयिता आचार्य प्रभाचन्द्र स्वयम्भूस्तोत्रके संस्कृत टोकाकार नहीं हैं। इस स्तोत्रके जो संस्कृत टीकाकार हैं वे ही रत्नकरण्डश्रावकाचार, समाधितन्त्र आदि ग्रन्थोंके भी संस्कृत टीकाकार हैं ।
प्रभाचन्द्र अनेक हुए हैं । श्री जुगलकिशोरजी मुख्तारने रत्नकरण्डश्रावकाचार की प्रस्तावनामें बीस प्रभाचन्द्रोंका परिचय दिया है । उन्हींमेंसे कोई प्रभाचन्द्र
१. सर्वान्तवत्तद्गुणमुख्यकल्पं सर्वान्तशन्यं च मिथोऽनपेक्षम् । सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ॥
-युक्त्यनुशासन ६१
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