________________
श्री वृषभ जिन स्तवन
३३
सम्पूर्ण हानि सम्भव है ? इस शङ्का का समाधान भी आचार्य समन्तभद्रने आप्तमीमांसा युक्तिपूर्वक किया है ' ।
इसी प्रकार 'समग्र विद्यात्मवपु: ' इस विशेषण द्वारा कुछ ऐसे मतोंका निराकरण किया गया है जो मानते हैं कि ज्ञान आत्माका गुण नहीं है । न्याय-वैशेषिक मत वाले मानते हैं कि आत्मा पृथक् है और ज्ञानगुण पृथक् है तथा समवाय सम्बन्धसे ज्ञान आत्मामें रहता है । ऐसा मानने पर भी वे मुक्त अवस्थामें ज्ञानका सर्वथा नाश मानते हैं । अर्थात् मुक्त आत्मा ज्ञानगुणसे सर्वथा रहित हो जाता है । इसी प्रकार सांख्य मत वाले मानते हैं कि ज्ञान प्रकृतिका गुण है, पुरुषका नहीं । सांख्य मतमें दो मुख्य पदार्थ हैं - पुरुष और प्रकृति । पुरुष चेतन है और प्रकृति जड़ ( अचेतन ) है । पुरुषका स्वरूप चैतन्यमात्र है । प्रकृति कर्त्री है और पुरुष भोक्ता । इसके विपरीत जैनदर्शनकी मान्यता है कि ज्ञान आत्माका विशेष गुण है और अर्हन्त अवस्था में समस्त पदार्थोंको विषय करने वाला केवलज्ञान तो आत्माका स्वरूप है । ज्ञान गुण न तो आत्मासे पृथक् है और न मुक्त अवस्थामें आत्मा ज्ञानशून्य है । आत्मा तो सदा ज्ञानमय रहता है और मुक्त अवस्थामें तो वह विशेष ज्ञानमय हो जाता है । क्योंकि ज्ञान आत्माका स्वरूप है और अर्हन्त अवस्था में उसका पूर्ण विकास हो जाता है । इस प्रकार यहाँ ' स विश्वचक्षुः' और 'समग्र विद्यात्मवपुः ' इन दो विशेषणों का विशेष महत्त्व प्रदर्शित किया गया है ।
उक्त श्लोक में जिनो जितक्षुल्लकवादिशासन: के स्थान में जिनोऽजितक्षुल्लकवादिशासन: ऐसा भी एक पाठ है । इसका अर्थ यह है कि जिनका शासन एकान्तवादियोंके द्वारा नहीं जीता जा सका ऐसे श्री वृषभ जिन मेरे चित्त को पवित्र करें ।
१. दोषावरणयोर्हानिनिःशेषास्त्यतिशायनात् । क्वचिद् यथा स्वहेतुभ्यो बहिर त लक्षयः ॥ ४ ॥
३
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org