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स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका का पूर्ण विकास । अतः इस विकासको करनेके लिए पहले प्रवृत्तिरूप कर्मयोग सम्बन्धी क्रियायें और तदनन्तर निवृत्तिरूप कर्मयोग सम्बन्धी क्रियायें करना आवश्यक है । प्रत्येक संसारी जीव आठ प्रकारके कर्मबन्धनसे बद्ध है। इस कर्मबन्धन को दूर करना अथवा ध्यानयोगरूप अग्निके द्वारा कर्ममल को जला कर भस्म कर देना ही कर्मयोगका लक्ष्य है । कर्मयोगका प्रारम्भ मुमुक्षु बननेके साथ होता है और उसकी समाप्ति शुक्लध्यानके द्वारा समस्त कर्मोंका क्षय करके मोक्ष पद की प्राप्ति होने पर होती है । कर्मयोगके चार अंग हैं-दया, दम, त्याग और समाधि । यम, नियम, गुप्ति, समिति, अनुप्रेक्षा, परीषहजय, इन्द्रियजय, कषायजय, तप, ध्यान आदि कर्मयोगके ही विविध रूप हैं। स्वयम्भस्तोत्रमें इन सबका विवेचन दृष्टिगोचर होता है। अतः यह स्तोत्र कर्मयोगका भी प्रतिपादक है । और कमयोगका नाम ही सम्यक्चारित्र है ।
इस प्रकार आचार्य समन्तभद्रके स्तुति परक ग्रन्थोंमें भक्तियोग, ज्ञानयोग और कर्मयोग इन तीनोंका समन्वय पाया जाता है । तथा आचार्य समन्तभद्र स्वयं उच्चकोटिके भक्तियोगी, ज्ञानयोगी और कर्मयोगी थे । स्वयम्भूस्तोत्रका रचनास्थल-वाराणसी :
श्रीब्रह्मनेमिदत्त कृत आराधनाकथाकोषमें बतलाया गया है कि पूर्वकर्मके उदयसे आचार्य समन्तभद्रको भस्मकव्याधि नामक रोग हो गया था। इस रोगमें कितना ही भोजन करने पर भी क्षुधाकी शान्ति नहीं होती है। क्योंकि जो कुछ भी खाया जाता है वह सब भस्म हो जाता है। मुनि अवस्थामें उस व्याधिका प्रतिकार संभव नहीं था । अतः आचार्य समन्तभद्रने अपने गुरुसे सल्लेखना धारण करने की आज्ञा मांगी। किन्तु भविष्यदृष्टा गुरुने उनके द्वारा भविष्यमें जैनधर्मकी महती प्रभावना होनेकी संभावनाको ध्यानमें रखकर सल्लेखना धारण करने को आज्ञा नहीं दी । गुरुने कहा-“तुम चाहे जहाँ जा सकते हो और चाहे जिस वेषको धारण कर सकते हो । मैं प्रसन्नतासे तुम्हें इस बातकी आज्ञा देता हूँ। रोगके उपशान्त होनेपर पुनः दिगम्बरी दीक्षा धारण कर लेना।" तब विवश होकर आचार्य समन्तभद्रने दिगम्बरी दीक्षा छोड़कर तथा अपने शरीर पर भस्म लपेट कर अन्य साधुका वेष धारण कर लिया। अपवाद मार्गको स्वीकार करनेके बाद वे दक्षिण भारतसे उत्तर भारतकी ओर भ्रमण करते हुए वाराणसी पहुंचे। उन्होंने मार्गमें परिस्थितिके अनुसार अनेक वेष धारण किये । कहीं बौद्ध भिक्षकका वेष धारण किया तो कहीं भागवत वेष धारण किया। वाराणसीमें समन्तभद्र शैवसाधुके वेषमें राजा शिवकोटिके शिवालयमें पहुँचे । उस शिव मन्दिरमें भोगके लिए मिष्टान्न तथा फलादि बहुत सामग्री चढ़ायी जाती थी। शिव भोगके लिए
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