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स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका पुष्टि श्रमणबेलगोलके शिलालेख नं० ५४के द्वारा भी होती है । इस शिलालेखको मल्लिषेण प्रशस्ति भी कहते हैं और यह शक सम्वत् १०५० में उत्कीर्ण हुआ है । वह शिलालेख इस प्रकार है
वन्द्यो भस्मकभस्मसात्कृतिपटुः पद्मावतीदेवतादत्तोदात्तपदस्वमन्त्रवचनव्याहूतचन्द्रप्रभः । आचार्यस्सुसमन्तभद्रगणभृद् येनेह काले कलौ
जैनं वर्त्म समन्तभद्रमभवद् भद्रं समन्तान्मुहुः ।। स्वयम्भूस्तोत्रके रचयिता आचार्य समन्तभद्र : समन्तभद्रका व्यक्तित्व :
युगप्रधान आचार्य समन्तभद्र स्याद्वादविद्याके संजीवक तथा प्राणप्रतिष्ठापक रहे हैं। उन्होंने अपने समयके समस्त दर्शनशास्त्रोंका गंभीर अध्ययन करके उनका तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त किया था। यही कारण है कि वे समस्त दर्शनों अथवा वादों का युक्तिपूर्वक परीक्षण करके स्याद्वादन्यायके अनुसार उन वादोंका समन्वय करते हुए वस्तुतत्त्वके यथार्थ स्वरूप को बतलानेमें समर्थ हुए थे। इसीलिए आचार्य विद्यानन्दने युक्त्यनुशासन की टीकाके अन्तमें
श्रीमद्वीरजिनेश्वरामलगुणस्तोत्रं परीक्षेक्षणैः। साक्षात् स्वामिसमन्तभद्रगुरुभिः तत्त्वं समीक्ष्याखिलम् ॥ इस वाक्यके द्वारा आचार्य समन्तभद्रको परीक्षेण अर्थात् परीक्षारूपी नेत्रसे सबको देखनेवाला कहा है । यथार्थमें समन्तभद्र बहुत बड़े युक्तिवादी और परीक्षाप्रधान आचार्य थे। उन्होंने भगवान् महावीर की युक्तिपूर्वक परीक्षा करनेके बाद ही उन्हें आप्तके रूपमें स्वीकार किया है। उनका कहना था कि किसी भी तत्त्व या सिद्धान्त को परीक्षा किये बिना स्वीकार नहीं करना चाहिए और समर्थ युक्तियोंसे उसकी परीक्षा करनेके बाद ही उसे स्वीकार या अस्वीकार करना चाहिए।
समन्तभद्र परीक्षाप्रधान आचार्य तो थे ही, किन्तु उनमें श्रद्धा और गुणज्ञता नामक गुण भी विद्यमान थे । उन्हें आद्य स्तुतिकार होनेका गौरव प्राप्त है । उनके उपलब्ध ग्रन्थोंमें रत्नकरण्डश्रावकाचार को छोड़कर आप्तमीमांसा आदि चारों ग्रन्थ स्तुतिपरक ग्रन्थ हैं । इन ग्रन्थोंमें अपने इष्टदेव की स्तुतिके व्याज (बहाना) से उन्होंने समस्त एकान्तवादों की आलोचना करके अनेकान्तवाद की स्थापना की है। वे स्वामी पदसे विभूषित थे। स्वामी उनका उपनाम हो गया था। इसीकारण विद्यानन्द और वादिराजसूरि जैसे अनेक आचार्यों तथा पं० आशाधर जैसे
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