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स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका
एक राजा थे । अतः इतना निश्चित है कि समन्तभद्र एक राजपुत्र थे और दक्षिणके निवासी थे । उनका प्रारम्भिक नाम शान्तिवर्मा था। श्री डॉ० पं० पन्नालालजी ने रत्नकरण्डश्रावकाचारकी प्रस्तावनामें लिखा है कि समन्तभद्रस्वामी द्वारा विरचित स्तुतिविद्याके अन्तिम पद्यसे 'शान्तिवर्मकृतं जिनस्तुतिशतं ये दो पद निकलते हैं । इससे ज्ञात होता है कि स्तुतिविद्याके रचयिता शान्तिवर्मा थे। ये शान्तिवर्मा कोई दूसरे नहीं किन्तु आचार्य समन्तभद्र ही थे।
समन्तभद्र आत्मसाधना और लोकहितकी भावनासे ओतप्रोत थे। अतः वे कांची (दक्षिण काशी) में जाकर दिगम्बर साधु बन गये थे । उन्होंने निम्नलिखित परिचय पद्य में
कांच्यां नग्नाटकोऽहं मलमलिनतनुर्लाम्बुशे पाण्डुपिण्डः पुण्ड्रोड्र शाक्यभिक्षुः दशपुरनगरे मिष्टभोजी परित्राट् । वाराणस्यामभूवं शशिधरधवलः पाण्डुरांगस्तपस्वी
राजन् यस्यास्ति शक्तिः स वदतु पुरतो जैननिर्ग्रन्थवादी ।। अपनेको कांचीका नग्नाटक (नग्न साधु) और जैन निर्ग्रन्थवादी लिखा है । उक्त पद्यसे यह भी प्रतीत होता है भस्मक व्याधि नामक रोग हो जाने पर उनको कुछ दूसरे वेष भी धारण करना पड़े थे। वे वाराणसी में शिवके समान उज्ज्वल पाण्डुर अंग (भस्म लपेटे हुए) तपस्वी (शैव साधु) के वेषमें रहे थे। किन्तु वे सब वेष परिस्थितिवश अस्थायी थे । अतः भस्मकव्याधि रोगकी उपशान्ति हो जाने पर समन्तभद्रने पुनः दिगम्बर साधुका वेष धारण कर लिया था। समन्तभद्रका समय :
आचार्य समन्तभद्रके समयके विषयमें विद्वानोंमें मतभेद है। कुछ विद्वान् समन्तभद्रको पूज्यपाद देवनन्दि (पञ्चम शताब्दो) के बादका मानते हैं, तो दूसरे विद्वान् पञ्चम शताब्दीके पहले का । किन्तु प्रसिद्ध अन्वेषक और इतिहासज्ञ विद्वान् (स्व०) जुगलकिशोरजी मुख्तारने अपने स्वामी समन्तभद्र' नामक महानिबन्धमें सप्रमाण यह सिद्ध किया है कि समन्तभद्र तत्त्वार्थसूत्रके कर्ता गृद्धपिच्छके बाद तथा पूज्यपादके पहले विक्रमकी दूसरी या तीसरी शताब्दीमें हुए हैं। पूज्यपादने अपने जैनेन्द्रव्याकरणमें 'चतुष्टयं समन्तभद्रस्य' (४।५।१४०) सूत्रके द्वारा समन्तभद्रका उल्लेख किया है । अतः समन्तभद्र पूज्यपादसे निश्चित ही पूर्ववर्ती हैं । समन्तभद्रकी कृतियाँ :
आचार्य समन्तभद्रकी रचनायें निम्न प्रकार हैं१. आप्तमीमांसा, २. युक्त्यनुशासन, ३. स्वयम्भूस्तोत्र ४. स्तुतिविद्या
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