________________
प्रस्तावना
विद्वानोंने अपने ग्रन्थों में अनेक स्थानों पर केवल स्वामी पदके प्रयोग द्वारा ही उनका नामोल्लेख किया है। उन्होंने अपने जन्मसे इस भारत भूमि को पवित्र किया था। इसीलिए शुभचन्द्राचार्यने पाण्डवपुराणमें उनके लिए जो 'भारतभूषण' विशेषणका प्रयोग किया है वह सर्वथा उचित है । __ यद्यपि आचार्य समन्तभद्रमें अनेक गुण विद्यमान थे किन्तु उन गुणोंमें वादित्व, गमकत्व, वाग्मित्व और कवित्व ये चार गुण तो उनमें परम प्रकर्ष को प्राप्त थे। उस समय जितने वादी ( शास्त्रार्थ करनेमें प्रवीण ) थे, गमक ( दूसरे विद्वानों की रचनाओंको स्वयं समझने और दूसरों को समझानेमें समर्थ ) थे, वाग्मी (अपने वचनचातुर्यसे दूसरों को वशमें करनेवाले) थे और कवि ( काव्य या साहित्य की रचना करनेवाले ) थे, आचार्य समन्तभद्र उन सबमें शिर पर चूड़ामणिके समान सर्वश्रेष्ठ थे । इसीलिए जिनसेनाचार्यने आदिपुराणमें कहा है
कवीनां गमकानां च वादीनां वाग्मिनामपि ।
यशः समन्तभद्रीयं मूनि चूडामणीयते ।। आचार्य समन्तभद्र सबसे बड़े वादी थे। उनके वाद का क्षेत्र संकुचित नहीं था। उन्होंने प्रायः सम्पूर्ण भारतवर्षका भ्रमण किया था और सर्वत्र ही उन्हें वादमें विजय प्राप्त हुई थी। वे कभी इस बात की प्रतीक्षामें नहीं रहते थे कि कोई दूसरा उन्हें वादके लिए निमंत्रण दे। इसके विपरीत उन्हें जहाँ कहीं किसी महावादी अथवा वादशालाका पता चलता था तो वे वहाँ पहुँच कर और वादका डंका बजाकर विद्वानों को वादके लिए स्वतः आमंत्रित करते थे। वहाँ स्याद्वादन्याय की तुलामें तुले हुए उनके युक्तिपूर्ण भाषण को सुनकर श्रोता मुग्ध हो जाते थे और किसी को भी उनका कुछ भी विरोध करते नहीं बनता था। इस प्रकार आचार्य समन्तभद्र भारतके पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तरके प्रायः सभी प्रमुख स्थानों में एक अप्रतिद्वन्दी सिंहके समान निर्भयताके साथ वादके लिए घूमे थे । एक बार वे भ्रमण करते हुए करहाटक ( महाराष्ट्रमें कोल्हापुर ) नगरमें पहुंचे थे और उन्होंने वहाँके राजाके समक्ष अपना वादविषयक जो परिचय दिया था वह श्रवणबेलगोलके शिलालेख नं० ५४ में निम्न प्रकारसे उपलब्ध है
पूर्वं पाटलिपुत्रमध्यनगरे भेरी मया ताडिता पश्चान्मालवसिन्धुठक्कविषये कांचीपुरे वैदिशे । प्राप्तोऽहं करहाटकं बहुभट विद्योत्कट संकटं
वादार्थी विचराम्यहं नरपते शार्दूलविक्रीडितम् ॥ वे करहाटक पहुँचनेसे पहले पाटलिपुत्र (पटना), मालव, सिन्धु, ठक्क (पंजाब), कांचीपुर ( कांजीवरम् ) और वैदिश ( विदिशा ) में पहुँच चुके थे । १. समन्तभद्रो भद्रार्थो भातु भारतभूषणः ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org