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स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका दशम तीर्थकर श्री शीतल जिनके स्तवनमें बतलाया गया है, कि उनकी वाणी जितनी शीतल है उतना शीतल न तो चन्दन है, न चन्द्रमाकी किरणें हैं, न गंगा का पानी है और न मोतियोंकी मालायें हैं । लोकमें अन्य तपस्वी जन सन्तान, धन तथा स्वर्गादिकी प्राप्तिकी आकांक्षासे तपश्चरण करते हैं । किन्तु श्री शीतल जिनने आत्माकी विशुद्धिके मार्गमें जागृत रहकर जन्म, जरा और मरणके दुःखोंसे छुटकारा पानेके लिए तपश्चरण किया था ।
ग्यारवें तीर्थंकर श्री श्रेयांस जिनके स्तवनमें अनेक दार्शनिक तत्त्वों पर प्रकाश डाला गया है। विधि और प्रतिषेध इन दोनोंमें से विवक्षाके अनुसार एक प्रधान होता है और दूसरा गौण होता है । विवक्षित धर्म मुख्य होता है और अविवक्षित धर्म गौण होता है। कोई भी वस्तु सत-असत् आदि दो अवधियों ( मर्यादाओं) से कार्यकारी होती है। ऐसी कोई दृष्टान्तभूत वस्तु नहीं है जो सर्वथैकान्तकी नियामक हो । श्री श्रेयांस जिन चार घातिया कर्मों का क्षय करके कैवल्य विभति के सम्राट् हुए थे तथा उन्होंने प्रजाको श्रेयोमार्गमें अनुशासित किया था।
बारहवें तीर्थंकर श्री वासुपूज्य जिन किसी को पूजा-स्तुति से प्रसन्न नहीं होते हैं और निन्दा से अप्रसन्न नहीं होते हैं । जिस प्रकार विष का एक कण अगाध समुद्र के जल को दूषित नहीं कर सकता है उसी प्रकार जिनेन्द्र की पूजा करते समय आरम्भ जनित जो अल्प पाप होता है वह बहुत पुण्यराशिमें दोष का कारण नहीं होता है । जो बाह्य वस्तु पुण्य और पापकी उत्पत्ति में निमित्त होती है वह आत्मामें होनेवाले शुभाशुभ परिणामरूप मूलहेतु (उपादान कारण) की सहकारी कारण है । निश्चयनयकी दृष्टिसे केवल अभ्यन्तर कारण (उपादान कारण) कार्योत्पत्तिमें समर्थ होता है। प्रत्येक कार्यकी उत्पत्ति बाह्य और अभ्यन्तर (निमित्त और उपादान) दोनों कारणोंकी समग्र तासे होती है। अन्यथा मोक्षकी विधि भी नहीं बन सकती है। श्री वासुपूज्य जिन जन्म कल्याणक आदि अम्युदय क्रियाओंमें देवेन्द्रों के द्वारा पूजे गये थे और इसीकारण वे सदा ही बुध जनोंके द्वारा वन्दनीय हैं।
तेरहवें तीर्थंकर श्री विमल जिन के स्तवन में बतलाया गया है कि जो नय परस्पर में निरपेक्ष हैं वे स्वपरप्रणाशी हैं और सापेक्ष नय अपने और परके उपकारी हैं । वस्तुमें सामान्य और विशेषको उसी प्रकार पूर्णता है जिस प्रकार बुद्धिलक्षण प्रमाण स्वपरप्रकाशकके रूपमें पूर्णता को प्राप्त होता है । स्यात् पदके प्रयोग द्वारा विवक्षित विशेषण-विशेष्यसे अन्य अविवक्षित विशेषण-विशेष्यका परिहार हो जाता है । जिस प्रकार पारा आदि रस से अनुविद्ध धातुएँ अभिमत फल देती हैं उसीप्रकार स्यात् पदसे चिह्नित नय अभिमत अर्थ की सिद्धि करते हैं।
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