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स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका सामने कामदेव को भी लज्जित होना पड़ा था तथा अन्तक (यम) को भी अपना स्वच्छन्द व्यवहार बन्द करना पड़ा था। उनका बाह्य रूप आभूषणों, वेषों और आयुधों का त्यागी था तथा विद्या, दम और दया में तत्पर था। सर्वभाषाओंमें परिणत होनेवाला उनका वचनामृत सर्वप्राणियों को तृप्ति प्रदान करता था । श्री अर जिन ने बतलाया था कि अनेकान्त दृष्टि ही सच्ची है और इसके विपरीत एकान्तदृष्टि शून्य (असत्) है। सत्, एक, नित्य, वक्तव्य और इनके विपक्षरूप जो नय पक्ष हैं वे सर्वथा रूपमें तो अत्यन्त दूषित हैं और स्यात् रूपमें पुष्टि को प्राप्त होते हैं। क्योंकि स्यात् शब्द सर्वथानियम का त्यागी है । प्रमाण और नय के द्वारा अनेकान्तमें भी अनेकान्त की सिद्धि होती है । इस प्रकार श्री अर जिनका शासन निरुपम और सर्वथा युक्तिसंगत है।
उन्नीसवें तीर्थंकर श्री मल्लि जिन को जब सम्पूर्ण पदार्थों का केवलज्ञान हुआ तब समस्त जगत् ने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया था। उनकी शरीराकृति सुवर्णनिर्मित जैसी थी। उनकी वाणी भी स्यात्पदपूर्वक यथार्थ वस्तुतत्त्व का निरूपण करनेवाली और साधुजनों को रमाने वाली थी। उनके समक्ष एकान्तवादी जनों का मान गलित हो गया था । इसी कारण वे पृथिवी पर विवाद नहीं करते थे। श्री मल्लि जिनका शासन संसार समुद्रसे भयभीत प्राणियोंको पार उतरनेके लिए श्रेष्ठ मार्ग था। वे जिनसिंह, कृतकृत्य और अशल्य थे।।
बीसवें तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रत जिन मुनियोंकी सभामें अत्यन्त शोभा को प्राप्त हुए थे । उनका शरीर तरुण मयूरके कण्ठवर्ण जैसी आभासे शोभित तथा मदनके निग्रहका सूचक था। इसके साथही वह श्वेत रुधिर से युक्त, अत्यन्त सुगन्धित, रजरहित, शिवस्वरूप तथा आश्चर्यकारी था। उनके वचन तथा मनकी प्रवृत्ति भी शिवस्वरूप और आश्चर्यजनक थी। उनका यह वचन कि चर और अचर यह जगत् प्रतिक्षण स्थिति, जनन और निरोध (ध्रौव्य, उत्पाद और व्यय) स्वरूप है, उनकी सर्वज्ञता का द्योतक है। श्री मुनिसुव्रत जिन अनुपम योग बलसे आठों कर्मोको नष्ट करके अतीन्द्रिय मोक्ष सुखको प्राप्त हुए थे।
इक्कीसवें तीर्थंकर श्री नमि जिन ने शुद्ध आत्मस्वरूपमें चित्त को एकाग्र करके पुनर्जन्मके बन्धनको नष्ट कर दिया था तथा उनमें केवलज्ञानरूप ज्योतिके प्रकाशित होने पर एकान्तवादी जन हतप्रभ हो गये थे। उन्होंने वस्तुतत्त्वको अन्योन्यापेक्ष अनेक नयोंकी अपेक्षासे विधेय, प्रतिषेध्य, उभय, अनुभय आदि सप्तभंगरूप बतलाया था। उन्होंने अहिंसा को जगत् में परम ब्रह्म बतलाने के साथ यह भी कहा था कि जिस आश्रम विधिमें अणुमात्र भी आरम्भ होता है वहाँ अहिंसा नहीं हो सकती है । इसी कारण उन्होंने उस परम ब्रह्मरूप अहिंसा की सिद्धिके लिए दोनों प्रकारके परिग्रह का त्याग कर दिया था । आभूषण, वेष तथा व्यवधान
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